गर्म होते आर्कटिक क्षेत्र के कारण जलवायु परिवर्तन गंभीर रूप ले रहा है, और वैज्ञानिक इस पर गहरी चिंता व्यक्त कर रहे हैं। हाल ही में किए गए शोध में पाया गया है कि आर्कटिक पर्माफ्रॉस्ट से होने वाले अतिरिक्त उत्सर्जन भविष्य में जलवायु परिवर्तन को 10 से 20 फीसदी तक बढ़ा सकता है, जिसका प्रभाव 2100 तक एक बड़े औद्योगिक राष्ट्र के उत्सर्जन के बराबर हो सकता है।
इस अध्ययन में दुनिया भर के शोधकर्ताओं ने पर्माफ्रॉस्ट कार्बन नेटवर्क के माध्यम से गर्म होते आर्कटिक टुंड्रा में जैविक प्रक्रियाओं की जांच की। शोधकर्ताओं ने पाया कि जलवायु परिवर्तन के कारण आर्कटिक क्षेत्र में हो रहे बदलाव न केवल उस क्षेत्र के लिए बल्कि दुनिया भर के लिए गंभीर परिणाम ला सकते हैं। उत्तरी एरिजोना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आर्कटिक क्षेत्र, जिसमें टुंड्रा और बोरियल जंगल शामिल हैं, दुनिया का सबसे उत्तरी पारिस्थितिकी तंत्र है और यह कार्बनिक कार्बन का एक महत्वपूर्ण भंडार है। हालांकि इस क्षेत्र में पृथ्वी के मिट्टी का केवल 15 प्रतिशत हिस्सा शामिल है, लेकिन यह दुनिया की मिट्टी के कार्बनिक कार्बन का लगभग एक तिहाई हिस्सा संग्रहीत करता है।
कार्बन पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र में पानी की तरह घूमता है, और कुछ पौधों द्वारा इसे वायुमंडल से बाहर निकाला जाता है जबकि अन्य जैविक प्रक्रियाओं जैसे कि अपघटन के माध्यम से इसे वापस वायुमंडल में छोड़ा जाता है। इन प्राकृतिक प्रक्रियाओं को सामूहिक रूप से पारिस्थितिकी तंत्र श्वसन के रूप में जाना जाता है।
वर्तमान में, पर्माफ्रॉस्ट पारिस्थितिकी तंत्र पृथ्वी के बाकी हिस्सों की तुलना में तीन से चार गुना तेजी से गर्म हो रहे हैं, जिससे इस क्षेत्र में कार्बन चक्रण और श्वसन में वृद्धि हो रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आर्कटिक पर्माफ्रॉस्ट से होने वाला अतिरिक्त उत्सर्जन भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को और अधिक गंभीर बना सकता है, और इसका असर 2100 तक एक बड़े औद्योगिक देश के उत्सर्जन के बराबर हो सकता है।
इस शोध में यह भी बताया गया है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों में पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन की वृद्धि को सही तरीके से शामिल नहीं किया गया है। इसका मतलब है कि अगर हमें पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से होने वाले संभावित उत्सर्जनों को रोकना है, तो हमें वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए और अधिक महत्वाकांक्षी कदम उठाने होंगे।
गर्म होते आर्कटिक क्षेत्र से निकलने वाला अतिरिक्त उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन को और अधिक गंभीर बना रहा है, जिसका प्रभाव भविष्य में एक बड़े औद्योगिक राष्ट्र के बराबर हो सकता है। पेरिस समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों में इस जोखिम को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के प्रयासों को और भी सख्त और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह बदलाव हमारे पर्यावरण और मानव जीवन के लिए गंभीर चुनौतियाँ पेश कर सकता है।