ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल और जलवायु परिवर्तन पर नई चुनौती

saurabh pandey
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अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम ने दुनिया भर के नेताओं, विशेषज्ञों, और पर्यावरण कार्यकर्ताओं को चौंका दिया है। डोनाल्ड ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल, न केवल अमेरिका के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा सवाल खड़ा करता है: क्या अमेरिका जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को पीछे धकेलेगा? ट्रम्प, जो पहले भी जलवायु संशयवादी के रूप में जाने जाते थे, अब फिर से अमेरिका की बागडोर संभालने वाले हैं, और यह स्पष्ट है कि उनके दृष्टिकोण में कोई खास बदलाव नहीं आया है।

जलवायु संकट और ट्रम्प का दृष्टिकोण:

ट्रम्प का हमेशा से यह मानना रहा है कि जलवायु परिवर्तन एक काल्पनिक समस्या है, जिसे कहीं न कहीं राजनीतिक फायदा उठाने के लिए गढ़ा गया है। उन्होंने जीवाश्म ईंधन के पक्ष में खुलकर बयान दिए हैं और ऊर्जा की कीमतों को घटाने का वादा किया है। उनका मानना है कि अमेरिका को पुनः “ड्रिल बेबी ड्रिल” की नीति पर लौटना चाहिए, यानी तेल और गैस के उत्पादन में बढ़ोतरी और संघीय भूमि को और अधिक खनन के लिए खोल देना। यह दृष्टिकोण उस समय और भी प्रासंगिक हो जाता है जब यह देखा जाता है कि अमेरिका पहले ही दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन चुका है, जो रूस से भी अधिक उत्पादन करता है।

बाइडेन का दृष्टिकोण:

अगर ट्रम्प की नीति को देखा जाए तो यह बाइडेन की जलवायु नीति के विपरीत है। बाइडेन ने अमेरिका के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 50-52 प्रतिशत तक घटाने का लक्ष्य रखा है, और 2035 तक 100 प्रतिशत कार्बन प्रदूषण मुक्त बिजली प्राप्त करने का लक्ष्य तय किया है। इसके साथ ही, बाइडेन प्रशासन ने स्वच्छ प्रौद्योगिकियों और हरित ऊर्जा में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (IRA) को भी लागू किया था।

क्या ट्रम्प पेरिस समझौते से बाहर निकलेंगे?

यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या ट्रम्प पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलेंगे, जैसा कि उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि वे फिर से उसी दिशा में कदम बढ़ाएंगे, जिससे वैश्विक जलवायु संघर्षों में कमजोरियां उत्पन्न हो सकती हैं। ट्रम्प का यह कदम न केवल जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सहयोग को कमजोर करेगा, बल्कि इससे वैश्विक दक्षिण के देशों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, जिन्हें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वित्तीय मदद की आवश्यकता है।

वैश्विक प्रभाव:

ट्रम्प के इस रुख का न केवल अमेरिकी नागरिकों पर असर पड़ेगा, बल्कि पूरी दुनिया पर भी इसका असर होगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बढ़ने के साथ, दुनिया भर के देशों में प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ेगा। इस स्थिति में, विकासशील देशों के लिए यह और भी चुनौतीपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव वहां अधिक देखा जाता है। ऐसे समय में जब हम जलवायु संकट से जूझ रहे हैं, दुनिया को नेतृत्व की आवश्यकता है, जो इस समस्या को हल करने की दिशा में ठोस कदम उठा सके।

समाधान की दिशा में:

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमें केवल सरकारों की दिशा-निर्देशों का ही पालन नहीं करना चाहिए, बल्कि हमें खुद भी जिम्मेदारी उठानी होगी। यह एक वैश्विक मुद्दा है, और केवल एक देश का प्रयास पर्याप्त नहीं होगा। हमें किफायती और समावेशी ऊर्जा समाधान अपनाने की जरूरत है, ताकि हर देश इसमें भागीदार बन सके। साथ ही, हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि औद्योगिक देशों के साथ-साथ विकासशील देशों को भी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उचित सहायता मिले।

ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल, अगर जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ता है, तो यह निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन के समाधान में बाधा डाल सकता है। हालांकि, यह स्पष्ट है कि दुनिया पहले से ही एक कम कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ चुकी है, और इसे इतना आसानी से पलट नहीं जा सकता। इस यात्रा में हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हम एकजुट होकर कार्य करें, ताकि हम जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चुनौती का सामना कर सकें और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित और हरित भविष्य सुनिश्चित कर सकें।

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