पेरिस समझौते के तहत 2035 तक के जलवायु लक्ष्यों को प्रस्तुत करने की समय सीमा महज दो सप्ताह दूर है, लेकिन अब तक केवल सात देशों ने ही अपनी जलवायु योजनाएं साझा की हैं। यह स्थिति इस बात को दर्शाती है कि कई देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं, और इसके परिणामस्वरूप पर्यावरणीय संकट की गंभीरता बढ़ने की संभावना है।
जलवायु परिवर्तन पर राजनीतिक नेतृत्व की कमी
इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (आईआईईडी) द्वारा जारी एक विज्ञप्ति में इस पर चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने में राजनीतिक नेतृत्व की कमी कहीं न कहीं इसकी मुख्य वजह हो सकती है। दुनिया भर में जलवायु संकट के प्रति लापरवाही और संबंधित लक्ष्यों में धीमी प्रगति, सरकारों की प्राथमिकताओं में पर्यावरण को प्रभावी रूप से शामिल करने में विफलता को उजागर कर रही है।
पेरिस समझौते के तहत जलवायु लक्ष्य
पेरिस समझौते के तहत, सभी देशों को हर पांच साल में अपनी जलवायु योजनाओं को अपडेट करने का जिम्मा सौंपा गया है। ये योजनाएं राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के रूप में जानी जाती हैं, जो देशों द्वारा जलवायु संकट से निपटने के लिए किए जाने वाले कदमों का मार्गदर्शन करती हैं। अगला अपडेटेड लक्ष्य 10 फरवरी 2025 तक प्रस्तुत करना है, जो पेरिस समझौते के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है।
क्या है पेरिस समझौते का उद्देश्य?
पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना है, ताकि पृथ्वी के पर्यावरण को बचाया जा सके। इसके लिए दुनिया भर के देश अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से योगदान देने के लिए बाध्य हैं।
अमेरिका की स्थिति
इस बीच, अमेरिका ने पहले ही पेरिस समझौते से बाहर जाने की अपनी मंशा का सार्वजनिक रूप से ऐलान किया है, जिससे वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रयासों में और अधिक विघटन की आशंका पैदा हो रही है। अमेरिका का यह कदम एक बार फिर यह दर्शाता है कि बड़े देशों के भीतर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी पर्यावरणीय संकट को बढ़ावा दे सकती है।
सिर्फ 3% देशों ने प्रस्तुत किए जलवायु लक्ष्य
10 फरवरी की समय सीमा के मद्देनज़र अब महज दो सप्ताह का वक्त बचा है, लेकिन अब तक पेरिस समझौते में शामिल देशों का एक छोटा हिस्सा, केवल 3%, ने ही अपने एनडीसी अपडेट किए हैं। इसका मतलब यह है कि अधिकांश देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ हैं, और इसके परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान में और वृद्धि हो सकती है।
आखिरकार, क्या कदम उठाए जाने चाहिए?
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जरूरी है कि देशों के राजनीतिक नेतृत्व को जलवायु संकट की गंभीरता का एहसास हो और वे ठोस कदम उठाने के लिए संकल्पित हों। सरकारों को अपनी राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को त्वरित गति से लागू करना होगा और न केवल अपना योगदान देना होगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर अन्य देशों के साथ मिलकर भी इस समस्या का समाधान खोजना होगा।
जलवायु परिवर्तन केवल एक पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दा भी बन चुका है। इसका असर गरीब देशों और विकासशील देशों पर सबसे अधिक होगा, जो पहले से ही प्राकृतिक आपदाओं और कृषि संकट से जूझ रहे हैं। समय सीमा नजदीक है, और अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए, तो वैश्विक तापमान में वृद्धि और भी कठिनाइयों का कारण बन सकती है।
जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में धीमी प्रगति और आवश्यक जलवायु लक्ष्यों का अनुपालन न होने से पूरी दुनिया को खतरा हो सकता है। पेरिस समझौते में शामिल देशों को इस संकट को गंभीरता से लेना होगा और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने के लिए समन्वित प्रयास करने होंगे। आने वाले समय में अगर हम पर्यावरण को बचाना चाहते हैं, तो राजनीतिक इच्छाशक्ति और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है।