उत्तर भारत में भूजल संकट लगातार गहराता जा रहा है, और इसका मुख्य कारण धान की खेती में अत्यधिक पानी का उपयोग है। यदि मौजूदा फसल पैटर्न में बदलाव किया जाए और धान की जगह जल-कुशल फसलें उगाई जाएं, तो यह न केवल भूजल स्तर को स्थिर करने में मददगार होगा, बल्कि किसानों की आय भी बढ़ाई जा सकती है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि अगर उत्तर भारत में धान के रकबे का 40 प्रतिशत हिस्सा भी दूसरी फसलों के लिए इस्तेमाल किया जाए, तो वर्ष 2000 के बाद खोए हुए 60-100 क्यूबिक किलोमीटर भूजल को वापस प्राप्त किया जा सकता है।
धान की खेती और भूजल पर इसका प्रभाव
उत्तर भारत, खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में धान की खेती प्रमुख रूप से होती है। धान एक ऐसी फसल है जिसे उगाने के लिए बहुत अधिक मात्रा में पानी की जरूरत होती है। सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर भूजल का उपयोग किया जाता है, जिससे भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे की घटनाएं भी बढ़ रही हैं, जो भूजल पर अतिरिक्त दबाव डाल रही हैं।
अध्ययन में पाया गया कि यदि धान की जगह अनाज, दलहन और तिलहन जैसी जल-कुशल फसलें उगाई जाती हैं, तो इससे न केवल पानी की बचत होगी, बल्कि किसानों को भी बेहतर आय मिल सकेगी। शोधकर्ताओं के अनुसार, धान की खेती को कम किए बिना भूजल का संरक्षण करना संभव नहीं है, और इस दिशा में ठोस नीतियों की जरूरत है।
फसल पैटर्न में बदलाव से संभावित लाभ
शोधकर्ताओं की एक टीम ने दो परिदृश्यों का आकलन किया। पहले परिदृश्य में धान की खेती के तहत पांच प्रतिशत क्षेत्र कम किया गया, जबकि दूसरे परिदृश्य में 37 प्रतिशत क्षेत्र को अनाज, दलहन और तिलहन की खेती के लिए उपयोग किया गया। इससे धान की खेती के तहत कुल क्षेत्र में 42 प्रतिशत की कमी आई।
अध्ययन में पाया गया कि अगर यह बदलाव किया गया होता, तो 2002 से 2022 तक के दौरान 45-91 क्यूबिक किलोमीटर भूजल को संरक्षित किया जा सकता था। इसके अलावा, किसानों का लाभ भी 13.5 प्रतिशत तक बढ़ सकता था, जबकि धान की उत्पादन क्षमता पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। यह स्पष्ट है कि फसल पद्धति में बदलाव से न केवल पर्यावरण को फायदा होगा, बल्कि किसानों को भी दीर्घकालिक आर्थिक लाभ मिलेंगे।
भूजल संरक्षण के लिए नीति निर्माण
भूजल संकट से निपटने के लिए सरकार और कृषि विशेषज्ञों को मिलकर एक ऐसी नीति बनाने की आवश्यकता है, जो फसल पद्धति में बदलाव को प्रोत्साहित करे। इसके लिए किसानों को जागरूक करने और उन्हें जल-कुशल फसलों के फायदे समझाने की जरूरत है। साथ ही, उन्हें बेहतर तकनीकों और संसाधनों से लैस करना होगा, जिससे वे फसल पैटर्न में आसानी से बदलाव कर सकें।
वर्तमान में, धान की खेती की परंपरा में बदलाव लाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक है कि किसान अपने भविष्य के बारे में सोचें और जल संकट को कम करने के लिए अपनी कृषि पद्धतियों में परिवर्तन करें। इसके अलावा, सरकार को भी जल-कुशल फसलों को बढ़ावा देने के लिए समर्थन योजना और प्रोत्साहन देना चाहिए।
भूजल संकट उत्तर भारत में एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है, लेकिन धान की जगह जल-कुशल फसलों का चयन करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। फसल पैटर्न में बदलाव से न केवल जल संरक्षण संभव है, बल्कि किसानों की आय में भी वृद्धि हो सकती है। सरकार, नीति निर्माताओं, और किसानों को मिलकर इस दिशा में काम करने की आवश्यकता है ताकि जल संकट को दूर किया जा सके और कृषि क्षेत्र में दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।
धान की खेती में बड़े पैमाने पर भूजल का उपयोग किया जाता है, जिससे भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। उत्तर भारत में, खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में फसल पद्धति में बदलाव लाकर भूजल की बचत की जा सकती है। अध्ययन के अनुसार, धान की जगह जल-कुशल फसलों को अपनाने से 60-100 क्यूबिक किलोमीटर भूजल को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही, किसानों की आय में भी वृद्धि हो सकती है, और भूजल स्तर को स्थिर बनाए रखने में मदद मिलेगी।
Source- dainik jagran