गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने हाल ही में प्राकृतिक खेती को जलवायु परिवर्तन, किसानों की आय और मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए एक स्थायी समाधान के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने प्राकृतिक खेती के नियमों और किसानों को इससे जोड़ने की चुनौतियों पर चर्चा की।
जैविक खेती के असफलता के कारण
आचार्य देवव्रत ने बताया कि पिछले तीन-चार दशकों से केंद्र और राज्य सरकारें जैविक खेती को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन इसके सफल मॉडल पूरे देश में स्थापित नहीं हो पाए हैं। उन्होंने व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने खुद तीन साल तक जैविक खेती की, लेकिन इसे छोड़ना पड़ा। उनका कहना है कि इसमें इस्तेमाल होने वाले केंचुए का गोबर मिट्टी का पोषण नहीं कर पाता है और तापमान के बदलाव के कारण यह भी मर जाता है।
प्राकृतिक खेती के सिद्धांत
आचार्य देवव्रत ने प्राकृतिक खेती की व्याख्या करते हुए कहा कि यह जंगलों के नियमों को खेती में लागू करने का एक तरीका है। उन्होंने कहा, “जंगल में कोई यूरिया या डीएपी नहीं देता, लेकिन वहां पौधों को किसी पोषक तत्व की कमी नहीं होती। जब प्रकृति जंगल में पौधों को सब कुछ प्राकृतिक रूप से देती है, तो खेतों में क्यों नहीं देगी?” उनका मानना है कि प्राकृतिक खेती सूक्ष्म जीवों, केंचुओं और मित्र कीटों की खेती पर आधारित है, जो मिट्टी के जैविक कार्बन को बढ़ाते हैं।
शुरुआती कम उत्पादन का सामना
आचार्य देवव्रत ने बताया कि जैविक और प्राकृतिक खेती के बीच अंतर को समझना जरूरी है। उन्होंने कहा कि कृषि वैज्ञानिकों को यह समझाना होगा कि प्राकृतिक खेती में प्रारंभिक कम उत्पादन की चिंता न करें। उन्होंने कहा, “हमारी कोशिश प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की है। अगर हम जैविक खेती की बात करें, तो हम देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं।”
रासायनिक कृषि की समस्या
आचार्य देवव्रत ने यह भी उल्लेख किया कि विदेशों में प्रतिबंधित रसायन भारत में बेचे जा रहे हैं और इसके प्रति जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का धन्यवाद किया कि उन्होंने लाल किले से प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की बात कही। उन्होंने बताया कि गुजरात में 10 लाख किसान प्राकृतिक खेती से जुड़े हैं और उनकी आय में वृद्धि हुई है।
आचार्य देवव्रत ने जोर देकर कहा कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक खेती ही एकमात्र स्थायी समाधान है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के बीच सही जानकारी का आदान-प्रदान होना चाहिए ताकि प्राकृतिक खेती को एक सामान्य रूप में अपनाया जा सके।
आने वाले समय में, यदि सही दिशा में प्रयास किए जाएं, तो प्राकृतिक खेती न केवल किसानों की आय बढ़ाने में मदद कर सकती है, बल्कि पर्यावरण और मिट्टी के स्वास्थ्य को भी सुधार सकती है।
आचार्य देवव्रत के विचारों से यह स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन और मिट्टी के स्वास्थ्य के संकटों से निपटने के लिए प्राकृतिक खेती एक प्रभावी और स्थायी समाधान हो सकती है। उन्होंने जैविक और प्राकृतिक खेती के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए यह बताया कि प्राकृतिक खेती में सूक्ष्म जीवों और जैविक प्रक्रियाओं का उपयोग करके मिट्टी की गुणवत्ता और फसलों की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।
गुजरात में 10 लाख किसानों का प्राकृतिक खेती से जुड़ना इस बात का प्रमाण है कि यदि सही जानकारी और संसाधन उपलब्ध कराए जाएं, तो किसान इस पद्धति को अपनाने के लिए तैयार हैं। इसके साथ ही, जागरूकता बढ़ाना और सही नीतियों का निर्माण करना आवश्यक है, ताकि रासायनिक खेती की हानिकारक प्रवृत्तियों से बचा जा सके।
यदि हम मिलकर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देते हैं, तो यह न केवल किसानों की आय में वृद्धि कर सकता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित पर्यावरण सुनिश्चित कर सकता है। इस दिशा में एक समर्पित प्रयास करना आवश्यक है, ताकि हम कृषि के भविष्य को सुरक्षित कर सकें और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर सकें।
Source- amar ujala