खरपतवार

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देखो माँ, गंगा मौसी आपसे कुछ कह कर गई, खरपतवार से उस पर लगे एक सुगंध हीन पुष्प ने बताया!

सदा की बुझी हुई अपने में हीन भावना से भरी हुई खपतवार, सदा की तरह अपनी निरर्थकता पर विचार कर रही थी! तन्द्रा टूटी, बोली, “नमस्ते बहन, तुम कितनी उल्लास भरी हुई। मैं कितनी बोझिल… यह मेरा सौभाग्य है कि मैं तुम्हारे किनारे उगी, हालाँकि हम खुद ही उग आती हैं, बिना किसी के लाभ के लिए!

मैं आपके सार्थक और कल्याणकारी जीवन को नमन करती हूँ!” गंगा बोली – “बहन, ईश्वर ने सभी को जीवन दिया है, तो कोई न कोई अर्थ जरूर होता है। कुछ को स्पष्ट हो जाता है, कुछ अनभिज्ञ रहते हैं! प्रत्येक छोटे कण से लेकर नन्ही बूंदें अपना अस्तित्व रखती हैं। सभी पल कुछ न कुछ घटने वाली कहानी रचते हैं। कब महत्वपूर्ण हो जाए, उन्हें खुद भी न पता होता।”

अचानक खरपतवार सूखी हुई शीर्ण टहनियों को गंगा में झुकाने लगी, उसका ध्यान गंगा वार्तालाप में नहीं था! एक छोटा बालक गंगा में फिसल कर गिर पड़ा था, कि उसे बचाने के लिए खरपतवार पूरी तरह से झुक गई!

आखिर कोशिश रंग लाती है, इस प्रक्रिया में उस बेचारे की जड़ें उखड़ आती हैं, परंतु बच्चे की जान बचाने में उस खरपतवार की महत्वपूर्ण भूमिका बताती है। कुछ भी व्यर्थ नहीं होता, कुछ समय बाद गंगा अपनी लहरों रूपी हाथों से उसे सहलाते हुए अपने आगोश में ले कर उसे मोक्ष प्रदान करती हैं!

मेनका त्रिपाठी

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