हिमालय में लगा पहला वाटर लेवल रिकॉर्डर, मापेगा ग्लेशियर का स्वास्थ्य

saurabh pandey
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तकनीक: भारतीय वैज्ञानिकों का प्रयोग, हिमखंडों के टूटने का आसानी से पता लग सकेगा

नई दिल्ली। भारतीय वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से हिमालय के ग्लेशियरों को बचाने के लिए एक नई तकनीक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। पहली बार हिमालय में स्वचालित वाटर लेवल रिकॉर्डर तकनीक लगाई गई है, जो ग्लेशियर से पिघले पानी का सटीक आकलन कर सकेगी। यह प्रयोग पश्चिमी हिमालय के चंद्रा बेसिन क्षेत्र में किया गया है।

केंद्र सरकार के राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर) ने हिमालय अभियान के तहत हजारों फीट की ऊंचाई पर इस तकनीक का इस्तेमाल किया है। इसके अलावा, पहली बार भाप से चलने वाली आइस ड्रिल तकनीक का भी इस्तेमाल किया गया है जिससे ग्लेशियर द्रव्यमान संतुलन को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी।

ग्लेशियर के द्रव्यमान संतुलन को ग्लेशियर के स्वास्थ्य के रूप में समझा जा सकता है। द्रव्यमान संतुलन ग्लेशियर में बर्फ के नुकसान और पिघलने का कुल योग है। ग्लेशियर के अस्तित्व के लिए उसका द्रव्यमान संतुलन बहुत ज़रूरी है। हिमालय की गोद में लगभग 10,000 ग्लेशियर हैं और सिकुड़ते ग्लेशियर का आकलन करना अत्यंत आवश्यक है।

अगर ग्लेशियर का द्रव्यमान संतुलन जलवायु के साथ संतुलित है, तो उसका आकार वही रहता है और वह बढ़ता या सिकुड़ता नहीं है। अगर ग्लेशियर में पिघलने की मात्रा बढ़ जाती है, तो उसका द्रव्यमान संतुलन नकारात्मक हो जाता है और ग्लेशियर सिकुड़ जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लेशियर सीधे जलवायु पर प्रतिक्रिया करते हैं और इसलिए जलवायु परिवर्तन के सबसे शुरुआती संकेतक के रूप में काम करते हैं। ग्लेशियरों के अध्ययन से पिछली जलवायु का पुनर्निर्माण, वर्तमान जलवायु की समझ और भविष्य की जलवायु का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

हिमालय दुनिया की सबसे युवा और ऊँची पर्वत श्रृंखलाएँ हैं और इनमें बड़ी संख्या में ग्लेशियर हैं। इनमें से कुछ ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर दुनिया में सबसे बड़े हैं। भारतीय हिमालय में लगभग 10 हज़ार ग्लेशियर हैं।

इसलिए नई तकनीक का इस्तेमाल किया गया। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने बताया कि हिमांश ने 6 जून 2023 और 8 जून 2024 को सुत्री ढाका ग्लेशियर पर बर्फ की गहराई मापी, जिससे पता चला कि एक साल के अंदर एक ही दिन में 85 सेमी बर्फ कम हुई है। इसे बर्फ की गहराई में गंभीर कमी की श्रेणी में रखा गया है, जिसके कारण ग्लेशियर की बर्फ तेजी से पिघल रही है। इन ग्लेशियरों से कितना पानी निकल रहा है और अगले पांच से 10 सालों में और क्या स्थिति पैदा हो सकती है, इसका सटीक आकलन करने के लिए स्वचालित तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। मानसून के साथ ही यहां बर्फबारी भी शुरू हो जाएगी, जिसके कारण वैज्ञानिक टीम के लिए ग्राउंड जीरो तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा।

Source- अमर उजाला (परीक्षित निर्भय)

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