एंटीबायोटिक्स के नियंत्रण पर 42% मेडिकल कॉलेजों ने साधी चुप्पी
नई दिल्ली: मरीजों को लिखी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं पर अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में गंभीरता से काम नहीं किया जा रहा है। डॉक्टरों की इस प्रेक्टिस पर 42 फीसदी मेडिकल कॉलेजों ने चुप्पी साध ली है। इसका मतलब है कि मरीजों की स्थिति पर कम से कम एंटीबायोटिक दवाएं लिखने के निर्देशों पर कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
हाल ही में दिल्ली स्थित राष्ट्रीय आयुष्मान संस्थान (एनएमसी) और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के तहत एक सर्वेक्षण किया गया। 606 मेडिकल कॉलेजों में से केवल 350 कॉलेजों ने ही जानकारी उपलब्ध कराई, जिनमें से 43 फीसदी कॉलेजों ने साफ तौर पर कहा कि उन्होंने एंटीबायोटिक्स के उपयोग को लेकर कोई जानकारी साझा नहीं की है।
आईएमए के एक वरिष्ठ सदस्य के अनुसार, कॉलेजों को ऐसे महत्वपूर्ण विषयों पर शिक्षण देना चाहिए, लेकिन यहां स्थिति बिल्कुल विपरीत है। इस वजह से मरीजों की सेहत पर गंभीर असर पड़ सकता है।
एनएमसी और आईएमए के अनुसार, देश में 2019 से 2023 के बीच 10,42,500 लोगों की मौतें हुई हैं, जिनमें से 2,97,000 मौतें एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस के कारण हुई हैं। यह आंकड़े बहुत चिंताजनक हैं और इस पर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है।आखिरकार, इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार और संबंधित संस्थाओं को तेजी से कार्रवाई करनी होगी ताकि एंटीबायोटिक्स का सही और सीमित उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।देश के कई कॉलेज, के. एम्स, ज. नूमियास, एस. औफसर, ए. वनम, एस. नूनियाम और एस. ट्यूबरक्लोसिस के साथ-साथ सूपर स्पेशलिटी हस्पतालों में इस विषय पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।
हालांकि, कई मेडिकल कॉलेज इस मुद्दे पर सक्रिय नहीं हैं, जिसका एक कारण एंटीबायोटिक लॉबी भी हो सकती है, जो इस प्रैक्टिस को बदलने में रूचि नहीं रखती। इस संदर्भ में उच्च स्तर पर सख्त नीति लागू करने की आवश्यकता है ताकि मरीजों की सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
एंटीबायोटिक दवाओं के अनियंत्रित उपयोग और मेडिकल कॉलेजों की निष्क्रियता एक गंभीर समस्या है। इसके समाधान के लिए सख्त नियम और जागरूकता अभियान की जरूरत है। मेडिकल शिक्षा प्रणाली में सुधार और सरकारी नीति में सख्ती ही इस समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है।