उत्तराखंड में बर्फ की मात्रा में 36.75% की कमी: जलवायु परिवर्तन से बढ़ता संकट

saurabh pandey
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जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव से हिमालयी ग्लेशियरों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड में पिछले 30 वर्षों में बर्फ की मात्रा में 36.75% की कमी दर्ज की गई है, जो बेहद चिंताजनक है। मिजोरम विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, बर्फ की मोटी चादर धीरे-धीरे पतली होती जा रही है, और हिम रेखा भी तेजी से ऊंचाई की ओर खिसक रही है।

30 वर्षों में बर्फ की मात्रा में भारी गिरावट

मिजोरम विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर विश्वम्भर प्रसाद सती और शोधार्थी सुरजीत बनर्जी के नेतृत्व में किए गए इस अध्ययन में उत्तराखंड के ग्लेशियरों की स्थिति का आकलन किया गया। शोध के अनुसार, 1991 में उत्तराखंड में बर्फ की मोटी परत 10,768 घन किलोमीटर थी, जो 2021 में घटकर 3,258.6 घन किलोमीटर रह गई। इसके विपरीत, बर्फ की पतली परत का आकार 3,798 घन किलोमीटर से बढ़कर 6,863.56 घन किलोमीटर हो गया है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ते खतरे

शोध में यह भी पाया गया कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण निचले इलाकों में बर्फ की चादर पतली हो रही है। इसका सीधा असर न केवल ग्लेशियरों पर, बल्कि स्थानीय जलवायु और संसाधनों पर भी पड़ रहा है। प्रोफेसर सती के अनुसार, “1991 में बर्फबारी की मात्रा 13,281 क्यूबिक किलोमीटर थी, जो 2021 में घटकर 8,400 क्यूबिक किलोमीटर रह गई है।”

बर्फ रेखा में 700 मीटर की खिसकन

अध्ययन में पाया गया कि पिछले 30 वर्षों में बर्फ रेखा लगभग 700 मीटर ऊपर खिसक गई है। इसका मतलब है कि निचले इलाकों में जो क्षेत्र पहले सालभर बर्फ से ढके रहते थे, वे अब तेजी से बर्फ रहित होते जा रहे हैं। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान, ऊपरी भागीरथी जलग्रहण क्षेत्र और टोंस नदी बेसिन जैसे क्षेत्रों में बर्फ के आवरण में तेजी से कमी आ रही है।

भविष्य के लिए खतरे की घंटी

ग्लेशियरों में हो रहे इस बदलाव के परिणामस्वरूप, कृषि के लिए पानी की कमी और आपदाओं जैसे बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि की संभावना बढ़ रही है। नैनीताल क्षेत्र में बर्फबारी की आवृत्ति में भी गिरावट देखी जा रही है, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन का खतरा बढ़ गया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि यदि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए जल्द से जल्द ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह संकट और गहरा हो सकता है। सरकार और स्थानीय समुदायों को इस स्थिति से निपटने के लिए जागरूकता और कार्रवाई की आवश्यकता है।

उत्तराखंड के ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। 30 वर्षों में बर्फ की मात्रा में भारी कमी और हिम रेखा का खिसकना इस बात का संकेत है कि ग्लोबल वार्मिंग से हिमालयी क्षेत्र गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है। यह बदलाव न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि स्थानीय समुदायों और कृषि के लिए भी गंभीर परिणाम ला सकता है। समय रहते ठोस कदम उठाना बेहद जरूरी है ताकि इस संकट को कम किया जा सके।

उत्तराखंड में बर्फ की मात्रा में 36.75% की कमी और हिम रेखा के 700 मीटर ऊपर खिसकने जैसी घटनाएं जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों का स्पष्ट संकेत हैं। ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना न केवल पर्यावरणीय असंतुलन का खतरा बढ़ा रहा है, बल्कि स्थानीय समुदायों की आजीविका और कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो बाढ़, भूस्खलन और जल संकट जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। यह बेहद जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के खतरे को समझते हुए ठोस और सामूहिक प्रयास किए जाएं, ताकि हिमालयी क्षेत्र और उससे जुड़े प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित किया जा सके।

Source- dainik jagran

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