ध्वनि प्रदूषण, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के भिलाई नगर में एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली और अपने सुसाइड नोट में ध्वनि प्रदूषण को इसका कारण बताया। इस घटना ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है, और इस बात को उजागर किया है कि शोर का अत्यधिक स्तर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक हो सकता है।
भारत में ध्वनि प्रदूषण की गंभीरता
भारत में ध्वनि प्रदूषण एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय और स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभर रहा है। अर्थ फाइवआर संस्था द्वारा किए गए 2023 के सर्वेक्षण के अनुसार, देश के 15 प्रमुख शहरों में आवासीय क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण की सीमा तय सीमा से 50 प्रतिशत अधिक पाई गई। यह एक चिंता का विषय है क्योंकि ध्वनि प्रदूषण का सीधा असर हमारे मस्तिष्क, दिल और कानों पर पड़ता है।
छत्तीसगढ़ में पिछले दो वर्षों में ध्वनि प्रदूषण के कारण तीन लोगों की मौत की खबरें सामने आई हैं। इनमें एक बच्चा भी शामिल है, जिसने ध्वनि के अत्यधिक स्तर को सहन नहीं कर सका। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि ध्वनि का स्तर 80 डीबी से अधिक हो जाता है, तो यह कानों को नुकसान पहुंचा सकता है। 120 डीबी की ध्वनि से कानों में दर्द होता है और 150 डीबी से कान के पर्दे फट सकते हैं, जिससे व्यक्ति बहरेपन का शिकार हो सकता है।
ध्वनि प्रदूषण के स्वास्थ्य पर प्रभाव
ध्वनि प्रदूषण न केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। यह चिंता, अवसाद, उच्च रक्तचाप, और नींद की कमी जैसी समस्याओं को जन्म देता है। विशेषज्ञों के अनुसार, ध्वनि प्रदूषण का लंबे समय तक संपर्क में रहना हृदय रोगों का खतरा भी बढ़ा सकता है।
ध्वनि प्रदूषण विशेष रूप से बुजुर्गों, बच्चों, और कमजोर समूहों को प्रभावित करता है, जो अत्यधिक शोर-शराबे वाली सड़कों या औद्योगिक क्षेत्रों के पास रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की एक रिपोर्ट के अनुसार, ध्वनि प्रदूषण हर साल यूरोपीय संघ में 12,000 से अधिक असामयिक मौतों का कारण बनता है।
ध्वनि प्रदूषण से निपटने के प्रयास
हालांकि भारत में ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं, फिर भी ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। कुछ प्रमुख शहरों ने इसे कम करने के लिए पहल की हैं। उदाहरण के तौर पर, मुंबई में 2008 में “नो हॉन्किंग डे” की शुरुआत की गई थी। इसी तरह, दिल्ली ने 2022 में तेज हॉर्न और संशोधित साइलेंसर पर प्रतिबंध लगा दिया था।
उत्तर प्रदेश सरकार ने धार्मिक स्थलों से 37,000 से अधिक लाउडस्पीकर हटाए और 55,000 से अधिक लाउडस्पीकरों की आवाज को सीमित किया। हालांकि ये प्रयास सकारात्मक हैं, लेकिन ध्वनि प्रदूषण की पूरी तरह से निगरानी और समाधान के लिए अभी भी अधिक कदम उठाने की जरूरत है।
ध्वनि प्रदूषण की वैश्विक समस्या
ध्वनि प्रदूषण केवल भारत की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक संकट है। अल्जीयर्स, बैंकॉक, ढाका, न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहरों में भी ध्वनि का स्तर स्वीकृत सीमाओं से ऊपर पाया गया है। दुनिया भर के शहरों में ट्रैफिक, औद्योगिक गतिविधियां और निर्माण कार्यों के कारण ध्वनि प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि ध्वनि प्रदूषण का असर जानवरों के प्रजनन चक्र पर भी पड़ता है और यह प्रजातियों के विलुप्त होने की गति को तेज कर सकता है।
समाधान
ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर जागरूकता फैलाने की जरूरत है। लोगों को यह समझना चाहिए कि ध्वनि का अत्यधिक उपयोग केवल दूसरों के लिए नहीं, बल्कि उनके अपने स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। सरकारी नीतियों और कानूनों को और सख्त किया जाना चाहिए ताकि शोर के स्रोतों पर नियंत्रण लगाया जा सके।
ध्वनि प्रदूषण की निगरानी और उसे नियंत्रित करने के लिए तकनीकी समाधान भी तलाशे जाने चाहिए। जैसे, शोर-शराबे वाले इलाकों में साउंड बैरियर्स का निर्माण, शोर प्रदूषण कम करने वाले वाहन और उद्योगों के लिए कड़े नियमों का पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
ध्वनि प्रदूषण आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है, जो न केवल हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि हमारे आसपास के वातावरण को भी नष्ट कर रहा है। छत्तीसगढ़ में हुई घटना हमें इस बात की याद दिलाती है कि ध्वनि प्रदूषण को नजरअंदाज करना अब मुमकिन नहीं है।
समाज के हर व्यक्ति को इस दिशा में जागरूक होकर अपने जीवन में बदलाव लाने की जरूरत है, ताकि ध्वनि प्रदूषण के खतरों से बचा जा सके। हमारी जागरूकता और छोटे-छोटे कदम इस समस्या को हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
Source- down to earth