प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने की जरूरत: वातावरण में सबका योगदान अवश्यक

saurabh pandey
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ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन कम करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के साथ संतुलन को बनाए रखने की जरूरत पर चर्चा तेज़ हो रही है। वातावरणीय विपरीतताओं और जीवन की सबसे महत्वपूर्ण संपदा को खतरे में डालने की चुनौतियों को समझते हुए, वैज्ञानिक और सामाजिक समुदाय साथ मिलकर समाधान ढूंढने में जुटे हैं।

गतिविधियों और उद्योगों के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि से जूझते हुए, शहरीकरण और प्राकृतिक संसाधनों की अनादरी व्यवस्थाओं ने वातावरण पर भारी प्रभाव डाल दिया है। वृद्धि के साथ-साथ, तापमान में भी वृद्धि हो रही है, जिससे हमारे पारिवारिक और व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है। यह ज्ञात हो चुका है कि वातावरण में इस बदलाव के साथ ही हमारी भूमिगत जल की तापमान भी बढ़ रही है।

इस संदर्भ में, हमें प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग और उनके संरक्षण को प्राथमिकता देनी चाहिए। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन कम करने के लिए न केवल वैज्ञानिक नये तंत्रों को विकसित किया जाना चाहिए, बल्कि साथ ही सामुदायिक संसाधनों का भी संवालन किया जाना चाहिए।

विशेष रूप से भारत में, जो 1971 में सबसे अधिक तापमान का अनुक्रमण कर रहा है, ताकि हम वैज्ञानिक संदर्भ से बचते हैं, 2024 में बढ़ते रहे 52 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक है। इससे जोड़कर, देश में हीटवेव के लिए लाल श्रेणी में आते हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है।

इस अधिकारिकता के साथ, हमें सभी देशों को इस तापमान बढ़ते से निपटने के लिए एक साथ मिलकर काम करना होगा। विशेष रूप से, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि के लिए सबसे अधिक जिम्मेदारी विकसित देशों के पास है, जो इसके लिए विशेष प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए।

अधिकांश, इस समस्या का स्थायी समाधान धरती की सुरक्षा में नहीं है, क्योंकि यह संकेत देता है कि सारी मानवता के लिए सह-अस्तित्व के सिद्धांत को ध्यान में रखकर हमें विकासशीलता के साथ-साथ प्रकृति के संसाधनों का समझौता करने की जरूरत है।

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