आज मुझे अपनी नानी का घर याद आ रहा है, जहां आंगन के कोने में कुईं थी।
उसके और रसोई घर के बीच में एक खिड़की थी, जहां पर कुईं से पानी खींच कर रखा जाता था। वहीं अंदर पीतल की चमकती हुई गगरियां एक के ऊपर एक रखी रहती थी।
कुईं का पानी खींच कर उनमें भरा जाता था और सारा दिन इस्तेमाल किया जाता।नानी
सुबह चक्की पर आटा पीस कर, चूल्हे पर रोटी बनाती ।
हम सब बच्चों को वहीं रसोई में बैठाकर, दही बूरा के साथ
जिमाया जाता। चूल्हे की बची हुई राख को ‘ हारे ‘ में डाला जाता, जिस पर घर की गाय का दूध कढ़ता रहता।वह दूध रबड़ी की तरह स्वादिष्ट लगता, जिसे नानी बड़े गिलास में पीने को देती।
एक बात जो मैं याद कर रही हूं, वह यह है कि नानी राख से बर्तनों को सूखा मांजती । वे राख से मांजकर उसकी राख झाड़ देती और फिर उसे साफ कपड़े से पोंछ देती। उनके सारे बर्तन इतने चमकते थे कि उनमें गंदगी का कोई नामोनिशान न होता। सब मौसियां गर्मी की छुट्टियों में आती थी और हम सब बच्चों को एक थाली में मिलजुल कर खाने की सीख दी जाती थी।मैं ने नानी को कभी पानी से बर्तनों को धोते हुए नहीं देखा। हां! जब चूल्हे पर भिगोना चढ़ाती, तो दो अंजुल पानी डालती और उसे आंगन में क्यारी में डाल देती।
पानी की किफायत कैसे की जाती है, यह बात वह पीढ़ी अच्छी तरह जानती थी।और जल को प्रत्येक शुभ अवसर पर देवी – देवताओं की तरह महत्ता दी जाती थी।
संतान जन्म पर कुआं पूजन इसी तरह का एक उपक्रम माना जाता था और वंशावली
के बढ़ने की मनौती मानी जाती थी। तालाब और बावड़ियों का निर्माण पुण्य कार्य कहा जाता।जीवन में सादगी, सरलता और स्वच्छता को महत्व दिया जाता था, न कि प्रदर्शन को।
संतोष बंसल
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