साहित्य और प्रकृति

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हमेशा से साहित्य ने मनुष्य को प्रकृति से श्रेष्ठ बताया है । यदि ऋग्वेद के मूल अंशों ( मंडल 2 से 7 तक ) को छोड़ दिया जाए तो अपवादिक परिस्थितियों को छोड़कर मनुष्य को सबसे महान बताया गया है । एक गीत से मैं इसका उदाहरण दे रहा हूॅं :

“धरती की शान तू है प्रभु की सन्तान,
तेरी मुठ्ठियों में बन्द तूफ़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है भूल मत,
मनुष्य तू बड़ा महान् है…..

तू जो चाहे पर्वत पहाड़ों को फोड़ दे,
तू जो चाहे नदियों के मुख को भी मोड़ दे,
तू जो चाहे माटी से अमृत निचोड़ दे,
तू जो चाहे धरती को अम्बर से जोड़ दे,
अमर तेरे प्राण, मिला तुझको वरदान,
तेरी आत्मा में स्वयम् भगवान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान् है….. “हमारा संपूर्ण साहित्य इसी तरह की विचारधारा से भरा पड़ा है । हमारे मिथक इसी तरह के विचारों से भरे हुए हैं ।‌कोई पहाड़ उखाड़ ले रहा है , कोई बाणों से नदी की धारा को रोक दे रहा है , कोई समुद्र को पी जा रहा है कोई बाण मारकर वर्षा करा दे रहा है , कोई अग्नि के पेट का अपच दूर करने के लिए खांडव वन को जला रहा है । जब हमने हमेशा से मनुष्य को पहाड़ , नदियों को रौंदना सिखाया है तो उसका परिणाम यही तो होना ही है ‌। आज़ यदि मनुष्य पहाड़ों को तोड़ रहा है , नदियों पर बॉंध बना रहा है , वृक्षों को काट रहा है तो इसीलिए हो रहा है क्योंकि हमने मनुष्य को प्रकृति के ऊपर बताया है । साहित्य ने मनुष्य को बताया कि हे मनुष्य ! तू पहाड़ तोड़ सकता है , नदियों को मोड़ सकता है , जंगल जला सकता है , धरती को आकाश से जोड़ सकता है । अब मनुष्य ऐसा ही कर रहा है तो इसमें मनुष्य का क्या दोष ? ऋग्वेद का दूसरे से सातवॉं मंडल प्राचीन माना जाता है । इसके बाद के समस्त साहित्य में मनुष्य को प्रकृति से ऊपर बताया गया ।‌ ऋग्वैदिक काल के बाद प्रकृति पर भयंकर आक्रमण हुआ । जंगलों को जलाए जाने के वृहद अग्निकांड का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में विदेह माधव की कथा में मिलता है । उस समय विदेह माधव और उसके पुरोहित गौतम राहूगण ने सप्तसैंधव प्रदेश में बहने वाली सरस्वती नदी से लेकर बिहार में स्थित गंडक नदी के तक के सारे जंगल जला डाले थे । यह प्रकृति पर आक्रमण था । उस भयंकर अग्निकांड में कितना कार्बन उत्सर्जन हुआ होगा , कितना धरती का तापमान बढ़ा होगा , यह सब सिर्फ अनुमान किया जा सकता है । फिर साहित्य ने चाहे वो दक्षिण पंथी हो या वामपंथी सबने मिलकर प्रकृति पर हल्ला बोल दिया । मनुष्य को सिखाया कि प्रकृति तेरी दासी है । तू उसके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकता । नदी , पहाड़ , जंगल सब तेरे गुलाम हैं । तेरे इशारों पर नाचने वाले हैं । किसी ने यह नहीं बताया कि हे पागल मनुष्य! तू विराट प्रकृति के सामने कुछ नहीं है । अगर धरती पर जीवन नष्ट हो जाए , धरती खत्म हो जाए तो प्रकृति के लिए वह कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है । प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है । तेरा भला प्रकृति के आगे नतमस्तक होकर चलने में ही है ।

हमारे मिथकों में ऐसे चरित्र गढ़े गए जो तीर मारकर वर्षा करा देते हैं । समुद्र पर पुल बना देते हैं । नदियों को बॉंध देते हैं । जंगलों को जला देते हैं । मनुष्य को प्रकृति के ऊपर श्रेष्ठ दिखाने का परिणाम है कि आज हम भयंकर जलवायु परिवर्तन को भोगने के लिए विवश हैं । वास्तविकता यह है कि प्रकृति के सामने मनुष्य कुछ नहीं है । अगर संपूर्ण पृथ्वी नष्ट हो जाती हैं तो प्रकृति के लिए कोई बड़ी घटना नहीं होगी । प्रकृति को कोई फर्क नहीं पड़ेगा । ऐसी न जाने कितनी घटनाएं प्रतिदिन ब्रह्मांड में होती रहती हैं । मनुष्य की भलाई प्रकृति के सामने नतमस्तक होकर रहने में ही है ।

अविनाश चंद्र

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