पारंपरिक आदर्श और पर्यावरण संरक्षण: आधुनिक युग में बड़ों की सीख की अनदेखी

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भारत की संस्कृति में हमेशा से ही बड़ों की सीख और कहीं गई बाते महत्वपूर्ण रही है। ये नीतियाँ और मान्यताएँ न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए महत्वपूर्ण थीं, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण दिख रही है!

“नमक जमीन पर गिरा तो पलकों से उठाना पड़ेगा, पांव न हिलाते मामा रास्ते भूल जाएगे, पहले सब को खिला बाद में खाना” सब्र सीख, जिस लड़की के पास सुई धागा मांगने पर न मिले तो समझ जाना फूहड़ होगी, चिड़िया का दाना रख, पानी पिलाओ, व्रत में दो बार नमक ना खाते जैसी बातें बचपन से मुझे सिखाई गई!

किसी के घर ज्यादा न जाते, कदर कम होती है, किसी से मर जाना पर उधार न लेना कोई तुम्हारे साथ खड़ा हो उसके साथ 100 बार खड़ा होना, नजर के इशारे समझ जाना कहना न पड़े, खुद्दार बन, एक चुप 100 को हराता है, दुश्मन बेवक़ूफ़ के होते हैं! कानो में गूंजती ये बाते अवचेतन में ऐसी बैठी कि कभी हानि न हुई!

बड़ों को लोक व्यवहार आता था, अनुभवों का खजाना किताबों या स्टैटस से नहीं वाक्यों से दिया करते थे आज की पीढ़ी सिर्फ मोबाइल को सगा मानती है, आवश्यकता से अधिक हम सब उन्हें बिना कुछ किए देंगे तो तो करे क्यों? जिसे मिले यूँ तो वे करे क्यों? ये भी माँ कई बार बोलती थी! आज सोचती हूँ वो बात बात में टोका टोक कितनी उपयोगी थी!

हमारे संस्कारों और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण संदेश देती थीं।इनमें से कई बातें हमारे पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी और सम्मान को दर्शाती हैं। जैसे, “पहली रोटी गाय की” का मतलब है कि हमें अपने पशुओं का ख्याल रखना चाहिए, जो हमारे पर्यावरण का हिस्सा हैं। गाय को पहली रोटी देना यह संकेत करता है कि हमें अपने आसपास के जीव-जंतुओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए।

इसी प्रकार, “नमक जमीन पर गिरा तो पलकों से उठाना पड़ेगा” यह सिखाता है कि हमें संसाधनों का सम्मान करना चाहिए और उन्हें बर्बाद नहीं करना चाहिए!

आधुनिक युग में, जब हम पर्यावरणीय संकटों का सामना कर रहे हैं, ये पारंपरिक आदर्श हमें सिखा सकते हैं कि कैसे हम अपने संसाधनों का संरक्षण कर सकते हैं और एक संतुलित जीवन जी सकते हैं।आधुनिक जीवन में इन आदर्शों की उपेक्षाआज के तेज़ गति वाले जीवन में, हमने इन महत्वपूर्ण बातों को अनदेखा करना शुरू कर दिया है। व्यस्तता और तकनीकी प्रगति के चलते हम अपने संसाधनों का दुरुपयोग कर रहे हैं और प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भूलते जा रहे हैं।

उदाहरण के लिए, “खाते हुए बोलते नहीं” का मतलब है कि हमें खाने के समय पूरी एकाग्रता और सम्मान के साथ खाना चाहिए। यह आदत न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छी है बल्कि हमें खाने के महत्व और उसके स्रोत की कदर करना भी सिखाती है।

संस्कारों का पुनर्जीवनआधुनिक युग में इन संस्कारों और आदर्शों को पुनर्जीवित करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए हमें अपनी पुरानी परंपराओं और मान्यताओं को समझना और उन्हें अपने जीवन में लागू करना होगा। यह न केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन को समृद्ध करेगा बल्कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

संक्षेप में, हमारे बड़ों की बातें और संस्कार हमें न केवल एक बेहतर मनुष्य बनने की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी को भी जागृत करते हैं। आज के आधुनिक युग में, जब हम पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं, इन परंपराओं और आदर्शों का महत्व और भी बढ़ जाता है। हमें इन बातों को अपने जीवन में शामिल कर, अपनी संस्कृति और पर्यावरण दोनों का संरक्षण करना चाहिए।

डॉ मेनका त्रिपाठी

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