ग़ज़ल

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अंदाज़ सुबह का ज़रा है हट के,
हर शख्स भीड़ लापता सा देखा।

अग्नि शहरों-शहर बदहवास सी भटके,
आसमान से उगलते बबाल को देखा।

पुचकारते, दुलारती, समझाती सी माँ,
बिगड़ती हुई औलाद को देखा।

कीचड़ में लिपटी सियासत ये खुदगर्ज़ी,खामोश समन्दर
छोटे नालों में उफनते उबाल को देखा।

था मंजर कल रात बड़ी उमस का,
आज भीगते हुए मलाल को देखा।

कहते हैं बदलाव है ज़िंदगी का हिस्सा,
सुबह बरसते पूरे ख्याल को देखा।

— मेनका त्रिपाठी

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