अलमारी में पेड़ों की लाश भरी है।
बिस्तर ,दरवाजे ,खिड़कियों,
पर्दों, कपड़े, जूते
सब इन के ही अंग प्रत्यंग है ।
पंखे ,एसी , वाशिंग मशीन ,मोटर
सब में रहट में बंधे नथे बैल जैसी
गोल गोल घूम रही है मेरी गंगा
गर्दन शर्म से झुक जाती है
देखता हूं फर्श पर मकराना के
पहाड़ की उधड़ी गई हड्डियां और खाल
चकरा कर दीवारों पर नजर पड़ती है
रंगीन दीवारें सनी पड़ी है
धरती की कोख से निकले रक्त से
घर से बाहर आंगन में गमले में लगे
पौधे है फार्म के बॉयलर चूजों जैसे ।
काली रंग के सड़क हाइवे पर
खोद दी गई नदी, जंगल और धरती
की लाश ही पड़ी है औंधे मुंह ।
उस पर दनदनाती गाड़ियों
और कारखाने से उठता धूम्र
जन्मेजय सा नाग यज्ञ कर रहे है
कुछ लोग पेड़ लगा रहे है ।
पॉलीथिन की पन्नियां उठा रहे है
इस धरती की कॉस्मेटिक सर्जरी कर रहे हैं
ये वो ही लोग है जो
स्त्री को सुंदर बनाने के
ब्राइडल पैक बेच रहे है ।
कुछ शहरों का भूमिगत जल
रीत गया तो क्या
तुम तो अगस्त की तरह
समुद्र भी सोख लोगे ।
अब कोई रास्ता पूछे हम क्या करें?
अगर मेरे पास उत्तर होता
तो ये मर्सिया ना पढ़ रहा होता
और मैं भूटान के थिम्फू में रहता ।
प्रफुल्ल ध्यानी हरिद्वार