मानसून नहीं तंत्र की विफलता है जल भराव का कारण

saurabh pandey
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देश के कई हिस्सों में मानसून के आगमन के साथ जलभराव की समस्या गंभीर रूप से उभरने लगी है। कुछ ही दिनों पहले, जहां लोग पानी की कमी से जूझ रहे थे, आज वहीं स्थान पानी में डूब चुके हैं। प्रकृति ने जैसे ही अपनी कृपा बरसाई और तालाब, नदियां, और नाले उफनकर धरती को सजीव बनाने लगे, समाज का एक वर्ग इसे आपदा और संकट के रूप में देख रहा है।

जब धरती गर्म हो रही थी, तब समाज को अपने आस-पास के कुएं, बावड़ी, तालाब, पोखर, और नदियों की सफाई करनी थी और उनमें जमा गाद को खेतों तक पहुंचाना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन, जो पानी धरती को साल भर जीवन देता है, वही अब लोगों के लिए समस्या बन गया है। यह समझना आवश्यक है कि नदियां, नहरें, तालाब और झीलें पानी के स्रोत नहीं हैं। असल में, पानी का स्रोत मानसून या ग्लेशियर हैं, और तालाब व नदियां तो उसे संजोने के स्थान मात्र हैं।

हम गर्मियों में मानसून की कृपा को सहेजने के लिए तैयारी नहीं करते, इसीलिए जलभराव होता है। आज गंगा-यमुना के उद्गम से लेकर छोटी नदियों के किनारे बसे गांवों और कस्बों तक एक ही शोर है कि बारिश ने हर खेत और गांव को तबाह कर दिया है, लेकिन मानसून के जाने के बाद इन सभी इलाकों में एक-एक बूंद पानी के लिए संघर्ष होगा। मानसून का पानी हमारी जमीन पर नहीं फैला है, बल्कि हमने जल विस्तार की प्राकृतिक जमीन पर कब्जा कर लिया है।

मानसून

अरबी शब्द ‘मौसिम’ का मतलब मौसम होता है और इसी से मानसून बना है। भारत में तीन तरह की जलवायु होती है- मानसून, प्री-मानसून और पोस्ट-मानसून। इसीलिए भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहते हैं। खेती, हरियाली और साल भर पानी की आपूर्ति इसी बारिश पर निर्भर करती है।

इसके बावजूद हम न तो मानसून के आगमन की ठीक से तैयारी कर पाते हैं और न ही बारिश के पानी को सम्मानपूर्वक इकट्ठा कर पाते हैं। भारतीय मानसून मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में होने वाले वायुमंडलीय परिसंचरण में परिवर्तन से संबंधित है। ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ होते ही सूर्य उत्तरायण हो जाता है। इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में बहने लगती है।

वर्षा जल के संचयन की आवश्यकता है। यदि देश की मात्र पांच प्रतिशत भूमि पर पांच मीटर की औसत गहराई पर वर्षा जल का संचयन किया जाए तो 500 लाख हेक्टेयर जल का संचयन किया जा सकता है। इस प्रकार पूरे देश में प्रति व्यक्ति औसतन 100 लीटर जल पूरे वर्ष उपलब्ध कराया जा सकता है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर उन पारंपरिक जल प्रणालियों को तलाशना आवश्यक है जो सदियों से समाज की सेवा करती आ रही हैं। उनका संरक्षण और संचालन करने वाले समाज का सम्मान किया जाना चाहिए।

हमारे पूर्वजों ने देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार वर्षा जल संचयन की अनेक प्रणालियाँ विकसित और संरक्षित की थीं, जिनमें तालाब सर्वाधिक लोकप्रिय थे। कुएँ कभी हर घर के आँगन में घरेलू आवश्यकताओं, यानी पीने के पानी और खाना पकाने के लिए ताजे पानी का स्रोत हुआ करते थे। धनी लोग सार्वजनिक कुएँ बनवाते थे। हरियाणा से लेकर मालवा तक जोहड़ मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए प्राकृतिक संरचनाएँ हैं।

source- दैनिक जागरण

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