प्रकृतिवादी सभा के गठन की पहली प्रस्तावना

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1 समय की मिट्टी में चेतना के हल से उगता है साहित्य का बीज और फैल जाता है जीवन में | सत्य साहित्य के रथ पर सवार बदल देता है समय की मिट्टी को और ठगा सा देखता रह जाता है राजा जो दावा करता था , समय को बदल देने का जीवन के आरंभिक दिनों में समय को लेकर बहुत चिंतन करता था | मेरे लिए यह समझना बड़ा मुश्किल और पेचीदा था कि गुजरे पल की परिधि मे जो समय आया था, वह आखिर कहाँ से चलकर आया था और अभी अभी कहाँ चला गया | उसके जाने के बाद यह जो नया समय आया है वह इससे पहले कहाँ था और कैसे आ गया | लंबे समय तक यह सवाल सवाल ही बना रहा | मैंने कइयों से पूछा पर इसका संतोषजनक उत्तर न मिला | बहुत बाद में और बहुत धीरे धीरे अध्ययन और चिंतन से यह बात साफ हुई कि समय निरंतर प्रवाहमान और गतिशील इकाई है जिसके भीतर हम घटित होते रहते है और वह हमारे भीतर घटित होता रहता है | समय का यह प्रवाह सजीव ,निर्जीव , सभ्यता , विचार मिथक और साहित्य को भी उसी तरह प्रभावित करता है जैसे आदमी को|हम पहले इस बात को समझेगे कि साहित्य और समय के रिश्ते का बुनियादी आधार क्या है | ब्रह्मांड जिसमें हम रहते है बहुत बड़ा रहस्य था | जीवन की करोड़ो साल लंबी यात्रा में हमारा वास्ता बहुत सारे रहस्यों से पड़ा | कई बार हम जंगल में खो गए , कई बार समंदर में खो गए , कई बार इस धरती पर खो गए | हर जगह राह मिल गई और हम बाहर निकल आए मगर ब्रह्मांड का रहस्य अछूता और अनजाना रहा | हमारे पास जितना यथार्थ था ,उससे कई गुना भ्रम था और अगर कुछ था तो वह विकलांग आस्था थी |बात चलती तो हमारे पास धर्म की कुछ किताबे थी और चुप्पी थी | किसी भी रहस्य को समझने और समझाने का माध्यम भाषा बनती है | जीवन के अनसुलझे रहस्य को समझने के लिए शब्द और भाषा की खोज एक बहुत बड़ा कदम था और यह भाषा पहले ईश्वर के रूप मे सामने आई | उनका तर्क था कि अगर यह दुनिया है तो जरूर किसी ने इसे बनाया होगा और मान लिया गया कि वह निर्माता ईश्वर है | यह रहस्य ईश्वर की उत्पति का कारक बना लेकिन जैसे जैसे जीवन विकसित होता गया , राह मिलती गई | जीवन को समझने के लिए कई नए नए द्वार खुलते चले गए | इतिहास ,मनोविज्ञान ,दर्शन और कला की तरह विज्ञान एक नया और सबसे भरोसेमंद आधार भाषा में बना | विज्ञान जो भी कहता था उसके पास इंद्रिय जनित प्रमाण होते थे | आरंभ में यह साहित्य का अंग था इसलिए विज्ञान को मैं साहित्य से अलग नहीं समझता | विज्ञान की कला ने भाषा में ब्रह्मांड के इस रहस्य से पर्दा उठा दिया और इस यथार्थ के बूते हम न सिर्फ समय ,न सिर्फ साहित्य बल्कि जीवन के हर रहस्य पर व्यवस्थित ढंग से बात कर सकते हैं | इस यथार्थ का नाम है बिग बैंग थियरी | बिग बैंग थियरी नाम न था पर दुनिया के सबसे पुराने साहित्यिक ग्रंथ ऋग्वेद नासदीय सूक्त यह बात चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था एको अहम बहु स्याम; और हम इस संदेह के घेरे में थे कि यकीन करें या नहीं| वो एक था और अनेक होने की उसकी इच्छा हुई | बात वहीं है पर लोग विज्ञान की भाषा पर भरोसा इस लिए करेंगे क्योंकि वह ज्ञान को इंद्रियों और इंद्रिय जनित तर्कों के करीब लाकर अभिव्यक्त करता है | बिग बैंग थियरी के सहारे हमने भरोसा कर लिया कि एक विस्फोट के साथ बहुत सारी चीजों का जन्म हुआ |अगर मुख्य दो चीजों का नाम ले तो पदार्थ और समय है | इनके साथ ध्वनि , दूरी और ऊर्जा जैसी अनगिनत चीजों का पदार्पण हुआ जिसके सहारे ब्रह्मांड और जीवन की पहचान और पड़ताल नए सिरे से आरंभ हो गई | अब पता चला कि समय एक गतिशील और परिवर्तन शील इकाई है और इसके भीतर सब कुछ वैसे ही घटित होता है जैसे धरती पर या ब्रह्मांड के भीतर | बिस्फोट के बाद पदार्थ जितनी दूर गया उससे दूरी और जाने मे जितनी देर लगी , उससे समय का पता चला | मगर समय इससे परे भी था | निश्चित दूरी पर जाकर पदार्थ रुक गया मगर समय नहीं रुका और आज भी वह गति में है। बिग बैंग थ्युरी का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि दुनिया की पड़ताल के लिए एक मानक जगह स्थिर हुई | ब्रह्मांड के बहुत सारे अन सुलझे सवाल सुलझ गए और बाकी सवाल भी दिनों दिन सुलझते जा रहे है | नकली धर्म ग्रंथ के पन्ने और भगवान तक उड़ने लगे है और दुनिया के उस रहस्य पता चलने लगा है जिस पर हम भरोसा कर सकते है | बिग बैंग थियरी की पहली स्थापना है कि आज की तारीख के लगभग 14 अरब साल पहले किसी पदार्थ के भीतर विस्फोट हुआ था और उस विस्फोट के बाद एक निरंतर चलने वाली यह दुनिया बनती चली गई और वह प्रक्रिया आज भी जारी है | थियरी की दूसरी स्थापना है कि विस्फोट के तीन लाख साल बाद विभिन्न पदार्थों के परमाणु आपस मे अलग अलग परिस्थिति में मिलने लगे और हम जिसे जीवन कहते है इसकी उत्पाति विस्फोट के उन सूक्ष्म परमाणुओ के मिलने के कारण हुई |तीसारी स्थापना है कि विभिन्न प्रजातियों के साथ आदमी की उत्पति आज से लगभग 25 साल पहले हुई और अपनी उत्पति के काल में कई अलग अलग तरह मानव रूप इस धरती पर थे | अभी तक छह तरह के लोगों के प्रमाण मिले है ,वे मनुष्य थे पर हमारी तरह नहीं थे | इज़राइल के प्रसिद्ध इतिहासकार युवाल नोवा हरारी ने अपनी पुस्तक सेपियंस जो मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास है में बताया है आदमी के भीतर की चेतना लगभग सत्तर हजार साल पहले विकसित हुई थी | आदमी तब उतना ही दयनीय था जितना और कोई जीव | सच कहे तो आदमी अन्य जीवों के मुक़ाबले ज्यादा दयनीय था | एक गाय का बच्चा जन्म के कुछ घंटों के बाद अपने पैर पर खड़ा हो जाता था और खाना खाने लगता था मगर आदमी के साथ यह संभव नहीं था |वन्य जंतुओं के बीच आदमी बहुत असुरक्षित था और डरा रहता था | इस डर के निरंतर प्रवाह ने उसके भीतर एक नया प्रतिरोधी ऊर्जा तंत्र विकसित किया जिसे आज हम चेतना कहते है और उसे अभिव्यक्त करने की प्रणाली को भाषा कहते है | भाषा में पहचान के आधार के लिए ध्वनि से शब्द बने | शब्द को हमारे उपनिषद ब्रहम कहते थे क्योकि वे अनुभव से जीवन के समानान्तर एक नई दुनिया को जन्म देते थे और अंदर के भाव को अभिव्यक्त कर देते थे |आज गाय को नहीं पता कि वह गाय है मगर हमें पता है | हर शब्द एक प्रतीक है | इस तरह शब्द भाषा में एक आभासी दुनिया लेकर आए और इनके आते ही अभिव्यक्ति की राह आसान हो गई | हरारी लिखते है कि दुनिया के अलग अलग हिस्सो मे मनुष्य की छह प्रजातियों के प्रमाण मिलते है | हम यानि सेपियंस ने जिस बल से अन्य आदम समूहों पर और पूरी दुनिया पर अपना ध्वज लहराया , उसका नाम भाषा है | मनुष्य की अन्य प्रजातियाँ इस कारण पराजित और नष्ट हो गई क्योंकि उनके पास हमारी तरह शब्द नहीं थे और भाषा नहीं थी | यह विकास आज से सत्तर हजार साल पहले आरंभ हुआ था और प्रवाहमान रहा | लगभग बारह हजार साल पहले आदमी के जीवन में दूसरा बड़ा बदलाव आया | खेती आरंभ हो गई और भोजन के मामले में वह आत्म निर्भर हो गया | भाषा और भोजन के आधार ने हमारे भय को कम किया और जीवन बहुत बदल गया | अब आदमी ने प्रकृति की बनावट को समझा और उसे अपने अनुरूप और सौम्य बनाया | भाषा के सहारे जीवन के लिए करोड़ो साल के उपयोगी अनुभव का संरक्षण लोक में किया और पहली बार इसे लोक साहित्य का दर्जा मिला | कालांतर में ये अनुभव जब लिखित रूप में आए तो संरक्षित होकर शास्त्र बन गए | इस तरह साहित्य की उत्पाति हुई और नाना रूपों मे उसका विकास होता रहा | समझाने के लिए मिलती जुलती घटनाओ के प्रतीक और बिम्ब उपयोग में लाए जाने लगे | ईसा से लगभग 2500 साल पहले दर्शन की उत्पति हुई | वेद ,उपनिषद , ब्राह्मण ग्रंथ , आरण्यक , पुराण , बौद्ध साहित्य ,जैन साहित्य सामने आया और यह गति बनी रही |साहित्य की इस चेतना का विस्तार क्रान्ति की तरह था और इसका प्रभाव यह हुआ कि शारीरीक रूप से सबसे कमजोर होने के बाद भी आदमी ताकतवर बनाता चला गया और आज वह इस दुनिया का स्वामी बन गया है | ईसाई मत ने तो घोषणा ही कर दी कि आदमी ने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लिया है और वह विजेता है | यह दुनिया जो लंबे समय से प्रकृति की चेतना से चल रही थी , आज आदमी की चेतना से चल रही है तो इसमे साहित्य का योगदान सबसे अहम है | साहित्य तब स्थापित होता है , जब वह अपने समय की चुनौतियों से टकराता है ,और अनुभव दर्ज करता है ,समस्या का समाधान करता है और बदलाव के लिए नया मार्ग देता है |एक ओर समय में साहित्य स्थापित होता है और दूसरी साहित्य में समय | यह उस खाट की बुनावट की तरह है जिसमे आप एक तरफ से बुनिए तो दूसरी तरफ अपने बुनाई हो जाती है | यह बात हमारे ऋषियों की समझ मे आ गई थी कि समय बदलता है , भाषा बदलती है ,जीवन का सत्य नहीं बदलता | आहार ,निंद्रा ,भय और सेक्स इन चार मूल वृतियों के इर्द गिर्द घूमता है | रावण जानकी को उठा ले गया | आज भी लड़कियों का अपहरण होता है | यह सत्य है कि समय बदला साधन बदले भाषा बदली सत्य नहीं बदला |एक लड़की के जीवन का यह सच नहीं बदला | लेकिन आहार निंद्रा भाय और मैथुन तो जानवर भी करते है ,साहित्य संगीत और काला हमे मानुषी बनाते है | वह सत्य जो नहीं बदलता उसका अनुशासन साहित्य में होता है | लेकिन समय को कौन बदलता है ? इस बात को समझाने के लिए महाभारतकार वेद व्यास ने एक कथा की रचना की है और उसके सहारे हम इसे समझ सकते है | भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था | युद्ध में अर्जुन के बाणों से बिंधे शर शय्या पर लेटे थे | उन्हे इंतजार था कि सूरज उत्तरायण हो ताकि वे अपने प्राण त्याग सके | जब सूर्य उत्तरायण हो गया तो कौरव पांडव और जो उनसे प्यार कराते थे , वैर भाव भूल कर सभी उनसे मिलने जाने लगे |इस क्रम में कृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर को लेकर उनके पास गए थे ताकि अंतिम मुलाक़ात कर सकें | लौटने के पहले कृष्ण की सलाह पर युधिष्ठिर ने भीष्म से एक एतिहासिक सवाल पूछा – दादा जी ,एक सवाल पुछना है ? पुछो | समय राजा को बदलता है या राजा समय को ? भीष्म सोंच मे पड़ गए और उनका अपना जीवन आँखों के सामने घूम गया | समय को कौन बदलता है और बदलाव में कौन से साधन प्रयुक्त होते है |सोंच विचार कर कहा – बेटा , बहुत जरूरी सवाल है | मै जबाब दे रहा हूँ लेकिन मेरी कही गई बात पर कभी संदेह मत करना , राजा ही समय को बदलता है | राजा ही समय को बदलता है | राजा मतलब सत्ता | सत्ता साधन के सहारे समय को आज भी बदल देती है | राजा का बदलाव अगर सकारात्मक और जन जीवन के अनुकूल हुआ तो साहित्य उसके पक्ष में और नकारात्मक हुआ तो विपक्ष बन जाता है | 2 हम समय को जान चुके है , साहित्य को जान चुके है और उसके बदलाव के कारक सत्ता को भी जान चुके है | लेकिन समय की धारा एक रेखीय नहीं है | दुनिया मे जितनी चीजे है और और जितने मनुष्य है सबका अपना अलग अलग समय है | सभी समय के भीतर घटित होते है और समय सबके भीतर घटित होता है | एक समय के भीतर जितने समय घटित होते है वे आपस मेँ प्रतिस्पर्धा कराते है और उसकी जो मुख्य प्रवृति की पहचान होती है ,उनके बीच के संघर्ष से पहचान बनती है और कालांतर मेँ समय को उस नाम से जाना जाता है | उदाहरण के लिए जिस काल मे वेद लिखे गए , वह वैदिक काल कहलाया | वैदिक काल मे ज्ञान की सत्ता थी , ज्ञान साधन बना और उसने समय को बदला | राजाओ के काल मे शक्ति की सत्ता थी , शक्ति के साधन से समय बदला , फ्रांस क्रान्ति के बाद राजतंत्र को बाजार की सत्ता ने बदला और बाजार ने समय को बदला | साहित्य का काम है इस बदलाव को दर्ज करना और उसकी प्रासंगिकता पर विचार करना | और यह काम उसने वखूबी किया है | साहित्य राम और कृष्ण जैसे चरित्र को नायक और रावण और कंस को खल नायक के रूप में दर्ज किया है | वैदिक काल का समय ,वह समय था जब खेती का विकास और विस्तार हुआ , खेती के औजारों का विकास हुआ और भी बहुत सारी प्रवृतियाँ उस समय मे विद्यमान थी मगर जब उसका काल निर्धारण हुआ तो वेदों की वैचारिक चेतना को मूल प्रवृति के रूप मे स्वीकृति मिली | जिस काल में पुराण लिखे गए उसे पुराण काल के नाम से जानते है | इस तरह जैसे जैसे जीवन बदला ,उसके समानान्तर समय बदला और उसके समानान्तर साहित्य भी बदला | बदलाव को साहित्य दर्ज करता रहा और समय का नामकरण होता रहा | लेखकों के द्वारा साहित्य को समाज का दर्पण कहने का आधार यही था |समय अनुभव के सहारे अतीत है ,चुनौतियों के सहारे वर्तमान है और सृजनात्मक कल्पना के सहारे भविष्य है | मगर आज साहित्य इस परिभाषा से आगे निकल चुका है और महज दर्पण नहीं रहा वह बदलाब मे विपक्ष बन कर अपनी भूमिका भी निभाने लगा है | साहित्य का जब इतिहास लिखा गया तो उसकी पड़ताल के केंद्र मे बदलाव का प्रवाह ही रहा है | हिन्दी साहित्य के समय के नामकरण पर गौर करे तो आदि काल , रीति काल , वीर गाथा काल , भक्ति काल , छाया वाद , उत्तर छाया वाद और प्रगतिवाद जैसे नाम से काल का निर्धारण हूआ है | हर काल में जो साहित्य रचा गया ,उसके नामकरण के पीछे जीवन था और संघर्ष था | शैव और वैष्णवों के बीच का विवाद मिटाकर तुलसी दास ने दीने इलाही को रोक दिया था और वह भक्ति काल के नाम से निर्धारित हुआ था | उस काल के जीवन के केंद्र में युद्ध सबसे बड़ा मुद्दा था मगर साहित्य का केंद्र धर्म था| उसके बाद अंग्रेज़ आ गए |अंग्रेजों के साथ गुलामी का दौर आया तो समाज की चुनौतियाँ बदल गई | काल के केंद्र मे उपनिवेश वाद था , जो विज्ञान और बाजार के साथ आया था | देखते देखते भक्ति की जरूरत खत्म हो गई और आजादी के आंदोलन के समय ने उसे विस्थापित कर दिया | आजादी के आंदोलन की चेतना को जन जन मे विस्तारित करने में सक्रिय भूमिका लेखको की थी और साहित्य के केंद्र में देश भक्ति आ गई | गुलामी के भय भरे माहौल में आमने सामने और सीधे बात कहना चुनौती पूर्ण होगया तो आजादी के बाद उस देशभक्ति में छायावाद आ गया | आज के समय की मुख्य प्रवृति प्रगतिवाद है जो 1936 के आस पास पास आया था | प्रगति शील लेखक संघ की स्थापना के साथ प्रेम चंद के द्वारा स्थापित किया गया था | इसने छायावाद को विस्थापित कर इसलिए अपनी जगह बनाई थी कि छाया वाद रूपवादी होने लगा था | प्रगतिवाद एक प्रवाह है और विकास का पर्याय है | प्रगति वाद पर भी सवाल उठे | प्रगति शब्द पूर्ण नहीं है | यह तुलना करता है | किसकी तुलना में आप प्रगतिशील है |विकास इसके समानान्तर खड़ा है | अगर आप विकसित है तो किसकी तुलना मेँ | इसे पूर्ण करने के लिए जनवाद आया , नव जनवाद आया, दलित लेखन और महिला लेखन का विस्तार हुआ | कविता में उठने वाली धाराओं को देखे तो नई कविता , अकविता , नक्सलवादी कविता , भूखी पीढ़ी नंगी पीढ़ीऔर लोक कविता जैसे जाने कितने विचारों ने अलग अलग और सम्मिलित होकर अपना योगदान किया | आखिर में साहित्य का समय विचार के रूप में समाज के सबसे आखिरी छोर पर खड़े आदमी के हित में था और उनके साथ खड़ा था | आज हमारे पास दलित ,महिला और इस विषय पर विचार करने के लिए समाजवाद से जुड़ती हुई एक सुसंगत प्रणाली है | इन विचारों का गहरा समाज शास्त्रीय विश्लेषण है | भले ही हम जन जीवन मे इसे दिखाई देता आंदोलन न बना पाएँ हो पर समाज के सबसे आखिरी छोर पर खड़े लोगों के लिए और उनकी चुनौतियों के साथ टकराने के लिए हमारे पूर्वज लेखको ने साहित्य को आधार बनाया है और दुशमन के चेहरे को बेनकाब कियान है और उनके हालातों मे अंतर आए है | आज साहित्य मनोरंजन नहीं बल्कि एक चुनौती भरा सामाजिक कार्य है | सामाजिक बदलाव मे साहित्य की भूमिका निर्धारित हुई , लेखक संगठन बने | उसके कार्य निर्धारित किए गए | पहला काम बदलाव के लिए वातावरण तैयार करना , दूसरा काम बदलाव मे कार्य कर्ता की तरह शरीक होना और क्रान्ति के सफल होने के बाद उसकी समीक्षा करना | प्रेमचंद निराला मुक्तिबोध नागार्जुन ,त्रिलोचन और पचासों नाम हनारे पास है जो आखिरी छोर पर खड़े आदमी के प्रति प्रतिबद्ध है और आपात काल मेँ जेल की यातराए तक की है | जिनके सहारे हम दावा कर सकते है कि असुविधा में भी उन हितैषी विचारों को पालती थी और उनके लिए साहित्य मनोरंजन का नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव का साघन माना गया | आजादी की जंग के अनुभव के साथ इस बात का अहसास हूआ था कि दुश्मन विदेशी हो तो लड़ना आसान होता है , मगर घर के हों तो लड़ना कठिन हो जाता है | जात पात , छुआ छूत, असमानता और सामंतवाद यहाँ के जीवन मेँ गहर धंसा था | यहाँ उन दुश्मनों की पहचान हुई जिनका खात्मा किए वगैर पूर्ण आजादी संभव न थी | इसलिए आजादी के बाद साहित्य समाज मे दलितों ,औरतों और समाज के सबसे आखिरी छोर पर खड़े हर आदमी के साथ खडा दिखने लगा | हमे यह कहते हुए गर्व महसूस होता है आज उनकी जीवन स्थिति और विचारों में बदलाव आया है | सामंतवाद की जड़ताएँ भले पूरी तरह नहीं टूटी हो पर उनकी आक्रामकता कम हुई है और ये प्र्वृतिया आखिरी सास ले रही है | आज के दलित और 50 साल पहले के दलित में आया फर्क हम समझ सकते है, महिलाओ में आया फर्क हम समझ सकते है | साहित्य ने इस दुनिया के बदलाव की दिशा को रेखांकित और परिभाषित किया है | आज भूख से कम लोग मरते है ,खाकर आधिक मरते है | बेरोजगारी कहीं नहीं है | गाँव मे खोजने पर मजदूर नहीं मिलते | आजा का संकट भाषा मेन है | अगर आपने इस बात की परिकल्पना की है कि प्रधान मंत्री की कुर्सी खाली हो हम जालर बैठे तो यह बेरोजगारी अलग है | आखिरी छोर पर खड़ा आदमी आज सभ्यता के समानान्तर खड़ा है और यह एक नए बदलाव का समय है | 3 पिछले दिनों जब करोना नाम की बीमारी पूरी दुनिया में पसरी तो एक बड़ा वर्ग उस काल को करोना काल कहने लगा | यह काल निर्धारण वैश्विक था और एक नए खतरे की ओर संकेत कर रहा था ,इसलिए पूरी दुनिया के जन मानस ने इसे स्वीकृति दी और यहाँ से काल के नए बदलाव और नई चुनौतियों को हम दर्ज कर सकते है | करोना का संकट अप्रत्याशित नहीं था | 2003 में जब सार्स नामक बीमारी आई थी तो वैज्ञानिकों ने चेताया था कि इस तरह के संकट आगे पैदा हो सकते है | इस तरह की जानकारी काफी नहीं थी | जानकारी के बाद कुछ करना था मगर कौन करे | कौन कर सकता है ? दवा कंपनियाँ ? वे मुनाफे के लिए पहले बीमारी बना रही है फिर दवा | सरकार कर सकती है मगर सरकार तो पूंजीपतियों की गोद में जाकर बैठी है | वे आम लोगों का नहीं पूंजीपतियों का हित ही देखती है | तो कौन करेगा ? यह जंग नई है और आरंभ हो चुकी है | साहित्य में इसे नए काल के रूप में दर्ज करना चाहिए | इतिहास अगर वर्तमान में शरीक नहीं होता और भविष्य गढ़ने में हमारी मदद नहीं करता तो उसका कोई मतलब नहीं होता और वह किसी काम का नहीं होता | हम साहित्य के अगर आने वाले समय की चुनौतियों और उसमें बदलाव की संभावना पर बात कर सकते है और मार्ग बना सकते है लेकिन उसके पहले,जानना होगा कि इस वक्त हम किस समय मे जी रहे है और क्या उसका समय पूरा हो गया है | यह वह वक्त है जब साहित्य को नई भूमिका के लिए तैयार हो जाना चाहिए ? इक्कीसवी सदी आते आते हालत बदले है और विचार की मांग करते है | बाजार ने दुनिया की परिकल्पना ग्लोबल गाँव के रूप मेँ की और वह हो गई है | राजतंत्र के समापन के साथ विचार के स्तर पर दुनिया दो भागो मेँ विभाजित दिखने लगी | एक पक्ष उदार वाद और दूसरा समाज वाद | उदारवाद समानता की कीमत पर स्वतन्त्रता की वकालत करता था और समाजवाद स्वतन्त्रता की कीमत पर समानता की वकालत करता था | एक का नेतृत्व अमेरिका के पास था जिसे आम भाषा मेँ पूंजी वाद कहा गया और दूसरे का नेतृत्व रूस के पास था जिसे मार्क्स वाद कहा गया | यह मोहभंग का काल है | रूस और चीन के हालत देख हम नहीं कह सकते कि वहाँ समाज वाद सही दिशा मेँ है और उसी तरह उदारवाद को देख हम आश्वस्त नहीं हो सकते जिसने मशीन के बल आदमी को विस्थापित करने पर तुला है | करोना ने यह बता दिया है कि आने वाले समय मेँ इस दुनिया का भविष्य ण तो उदार वाद के हाथ मेँ सुरक्शित है और न समाज वाद के और तीसरा रास्ता दिखाई नहीं देता | हमारे सामने पूरी दुनिया के स्तर पर जो बड़े बदलाव दिखते है वे पिछले 500 साल के सभ्यता की देन है 19 वी और 20 वी शताब्दी पर विचार करें तो पता चलेगा कि इस शताब्दी के तीन बड़े संकट थे | 1 युद्ध , 2 महामारी 3 भूखमरी | हमने धर्म शास्त्रों से पूछा – अगर इस दुनिया में हम सब का पालक सर्व शक्तिमान ईश्वर था तो क्या कर रहा था ? उसने इस संकट की अवस्था में हमारा कोई सहयोग क्यों नही किया| हमें इस संकट से क्यों नहीं उबारा | जबाब में धर्म शास्त्र मौन रहे और उनकी खामोशी से यह मान लिया गया कि इस प्रश्न का उत्तर उनके पास नहीं है यानि ईश्वर नाम की कोई सत्ता नही है | नीत्शे ने इसे अपने दर्शन का आधार बनाया ओर सुपर मैन की अवधारणा सामने आई | विज्ञान और बाजार ने युद्ध को शक्ति संतुलन से , महामारी को चिकित्सा से और भूखमरी को जेनेटिक्स के द्वारा अन्न उपजा कर हल किया | 21 वी शताब्दी आते आते एक तरफ इन जटिल समस्याओ का समाधान तो मिल गया किन्तु इसके प्रभाव और प्रकृति के दोहन से जो नई समस्याए पैदा हुई वे और भयावह बन कर सामने आ गई | वे भयावह संकट है ग्लोबल वार्मिंग,प्रदूषण और रोबोटिज्म जिसने मनुष्य को ही विस्थापित कर दिया है | आज समय जिस जगह खड़ा है ,वहाँ से प्रलय का मार्ग साफ दिख रहा है | हवा सांस लेने लायक नहीं, पानी पीने लायक नहीं और धरती फसल देने लायक नही | अगर यह सब यूं ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मानव प्रजाति डायनासोर की तरह लुप्त हो जाएगी और जीवन के साथ लाखो साल के अनुभव से अर्जित की गई ज्ञान सम्पदा धूप में कपूर की तरह तिरोहित हो जाएगी | अब यह सवाल उठने लगा है कि कैसे बचाया जाय | जीवन को और अनेकानेक भाषाओ में छुपी ज्ञान सम्पदा को कैसे बचाया जाय | यह प्रश्न आज दुनिया के सामने , समय के सामने और साहित्य के सामने चुनौती बन कर खड़ा है और उत्तर की मांग कर रहा है | बाजार आता है तो अपना विचार और अपना साहित्य भी लेकर आता है और अपने लेखको को भी ले आता है और सोचते थे | आज जो कुछ साहित्य की दुनिया में दिख रहा है , यह बात नई नहीं है | समय का अपना बाजार होता है, बाजार का अपना समय | लेकिन एक समय मेँ समय की अलग अलग कई धारा होती है | अज्ञेय जैसे लेखकों को अच्छा लेखक तो माना गया पर उनके साहित्य को रूपवादी कहा गया | प्रेम चंद्र की तरह वे मुखी धारा में न आ सके | केशकांबली जैसे इतिहास के महान यथार्थ वादी पात्र जो कहता था मरने के बाद कुछ नहीं होता ,उसे अज्ञेय ने असाध्य वीणा कविता मेँ रहस्य वादी बना दिया | लेखन की एक मर्यादा है | एक शास्त्र है | जैसा केशकंबली कविता मेँ है ,वह उसका चरित्र नहीं है ,इसलिए कलावाद है , कवि के रूप मे उनका मान था , सत्ता से निकटता थी थी लेकिन अज्ञेय उम्र भर कला वाद के दर्जे मेँ रहे | भोपाल का भारत भवन भी साहित्य का मिथक बना | गुलशन नन्दा और रानु जैसे लेखक भी थे | यह उछलकूद चाहे जितनी हुई हो लेकिन साहित्य की सामाजिक भूमिका के साथ जो प्रगतिशीलता की धारा या उपधारा से निकल कर आया उसको ही वास्तविक साहित्य को महत्व मिला | अब खतरा नया है | बाजार आ गया है | सामाजिक बदलाव की कल्पना से अलग ,समय की चुनौतियों से झुझने की भावना से अलग लेखकों की एक पीढ़ी आ गई है जो साहित्य को लोगों के मनोरंजन , अपना मान सम्मान और सुविधा पूर्ण जीवन का साधन बना उत्सव धर्मी हो रही है | गज़ब यह है कि यह विचार भी साहित्य की मूल धारा बनने के लिए व्यग्र है |अनुकूल होने के कारण इस तरह के लोगो को सत्ता और बाजार का भरपूर सहयोग मिल रहा है | सत्ता का सहयोग किस तरह मिल रहा है , 2024 के ज्ञान पीठ के नए पुरस्कार साक्षी है | आज के समय में दो तरह के लेखक साफ साफ दिखाई देते है | दोनों के अपने नामवर सिंह है , मान बहादुर सिंह है और अपने गुलजार है | दोनों के मंगलेश डबराल है ,दोनों के कुमार विश्वास | दोनों की चेतना और जीवन मूल्यों मे इतना अंतर है कि एकता नही हो सकती मगर यह विचार का विषय है | इस पर विचार करने से सत्ता और बाजार का दृष्टिकोण समझ मेँ आता है |इसे उदाहरण देकर समझाना चाहूँगा | मान बहादुर सिंह एक कवि है | उनके कविता की एक पंक्ति देखिए | बाबू साहब मुसकाए जैसे धूप मे ठनका हो गेंहुवन | और दूसरी ओर गुलजार नाम के एक कवि है जिनहोने लिखा छांव छम से गिरी | आप अच्छा लिख रहे है यह महत्वपूर्ण है मगर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है आप क्या लिख रहे है? आप किसके पक्ष मेँ है ? आपकी पॉलिटिक्स क्या है और आपकी प्रतिबद्धता किसके प्रति है ? मनबहादुर सिंह की हत्या हुई | उस विद्यालय के प्रांगण मे जिनके वे प्राचार्य थे । मान बहादुर सिंह के हाथ पाँव और गर्दन को बड़ी बेरहमी से काट कर उनके पेट पर रख दिया |मान बहादुर सिंह का हत्यारा आराम से हत्या कर के बेखौफ स्कूल से बाहर निकाला , गुमटी पर पान खाया और इस तरह आराम से चला गया जैसे खेत घूम कर आ रहा हो | प्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने कहा कि वहाँ जितने लोग इस दृश्य को देख रहे थे अगर थूक भी देते तो हत्यारा उसकी बाढ़ मे डूब जाता | मान बहादुर सिंह जैसे लेखकों का जीवन चुनौती पूर्ण है और गुलजार मुंबई में आराम की जिंदगी जी रहे है | कहीं सरकार उन्हे कोई पद और पुरस्कार देती है और उत्सव धर्मी आयोजन उनकी स्वीकृति पाकर खिल जाते है | गौर से समझिए | बाजार और सरकार मान बहादुर सिंह और गुलजार के बीच ,मंगलेश डबराल और कुमार विस्वास के बीच के फर्क को मिटा रही है | लोगों को विचार हीन बनाने और छांव को चमककर सतही मनोरंजन मे डुबो देने की साजिश है | हम बाजार के जिस समय मे जी रहे है उसकी यह बड़ी सच्चाई है | एक तरफ पानी पीने लायक नहीं , हवा सांस लेने लायक नहीं करोना जैसी चुनौतियाँ और दूसरी तरफ मनोरंजन मेँ दुनिया को डुबो रहे साहित्यकार | अभूत पूर्व संकट है यह | साहित्य अपनी भूमिका खो रहा है | रूपवाद अश्लीलता की वकालत कर रहा है | बेईमान अमीर है ,अच्छा जीवन जी रहे है इसक मतलब यह नहीं कि बेईमानी अच्छा गुण है | रूपवाद चमकता है टिकाऊ नहीं होता | जीवन की लय विचार की खुराक और धुन के कारण लोकप्रिय होते है गीत | सत्ता और बाजार का सहयोग अलेखकों को किस तरह मिल रहा है ,बस देख रहे है और सोच रहे है इस समय क्या करना चाहिए | समय का अपना बाजार है, बाजार का अपना समय | इस समय से बाहर निकालने की वैचारिक चुनौती आज के साहित्य के सामने खड़ी है | अब आगे क्या होगा ? यह दुनिया विनाश की ओर जाएगी या निर्माण की ओर | एक लेखक क्या करना चाहिए आखिर | उसे पता करना चाहिए कि इस आमय का वास्तविक दुख क्या है | बुद्ध ने अपने जीवन का सार बताया | दुख क्या है ? दुख का कारण क्या है और उसका समाधान क्या है | मेरा ख्याल है मनुष्य एक ऐसे समय मेँ जी रहा है जहां उसे वह दुख नहीं है जिसका हम अक्सर जिक्र करते है | आखिरी जिस आदमी के साथ साहित्य खड़ा था वह अब आखिरी न रहा | हम बता चुके है कि बहुत दिन हो गए किसी को भूख से मरते नहीं सुना | न खाने से ज्यादा खाकर लोग मर रहे है | किसी सामंत की औकात नहीं बची कि वह दबदबा दिखाए | मनुष्य की महत्वाकांशा बढ़ गई है और लालच से उत्पन्न दुखों का कोई जबाब नहीं होता | 4 साहित्य जीवन मे समय के समानान्तर एक सत्ता है | इस कठिन समय में हमारे साहित्य के पास इस बात का विवेक होना चाहिए कि वह असली दुख को पहचान सके ,इसके कारण की पड़ताल कर सके और उपायुक्त मार्ग दे सके | इस वक्त आदमी को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ,यह विवेक देना साहित्य का काम है | यह आयोजन नामवर सिंह के नाम पर है | नामवर सिंह की एक पुस्तक है दूसरी परंपरा की खोज | इस परंपरा की कहानी बंगाल से आरंभ हुई थी | रवीन्द्र नाथ टैगोर के पास एक महिला आई और कहा कि वह अपनी बेटी का कन्यादान करना चाहती है पर पंडित कहते है कि वह नहीं कर सकती |कन्या दान के पहले नांदी श्राद्ध करना होता है जो विधवा के लिए वर्जित है | गुरुदेव ने बनारस से पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी को बुलाया और पूछा |शास्त्रों के अध्ययन के बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताया कि इसके दो पक्ष है एक पूर्व पक्ष और दूसरा उत्तर पक्ष | पूर्व पक्ष मे इस बात की स्वीकृति है कि वह कर सकती है मगर उत्तर पक्ष जहां निष्कर्ष दिया गया है वहाँ मना कर दिया गया है | यह बात हम बता चुके है कि समय बदलता है , भाषा बदलती है ,जीवन का सत्य नहीं बदलता |पूर्व पक्ष के समय के अनुसार उस औरत को कन्या के दान का अधिकार दिया गया और दूसरी परंपरा की खोज आरंभ हो गई | नामवर सिंह जब इस दूसरी परंपरा के पास जाते है तो वे हु बहू उसे स्वीकार नहीं कराते वलकी उसे अपने समय के बोध के साथ अनुकूल बनाने की वकालत करते है | आधुनिक-सभ्यता ने जिस तरह हमारे जीवन को छूने का प्रयास किया है , वह भयावह चित्र हम देख सकते हैं या कल्पना कर सकते हैं | दूसरी ओर पूर्व पक्ष यानि अतीत की आरंभिक सभ्यता का वह चित्र भी हमारे सामने है , जिसने जीवन की एक सुविचारित नींव रखी थी , जिसे हम आदि जीवन या आदिवासी-जीवन के रूप में देखते हैं | यह समुदाय भी वैश्विक स्तर पर है | अगर हम अपने भूगोल की बात करें तो यह समुदाय अपने आपको आर्यावर्त के आवर्त का ,जंबू द्वीप का और भारत खंड का मूल निवासी और आदि निवासी मानता है | अगर यह एक सभ्यता थी तो उसके मूल चरित्र को हमें समझना होगा जिस पर बहुत कम काम हुआ है | हम यदि यह मान कर चलें कि यह हमारा अपना ही पूर्व पक्ष है तो संभव है हम रास्ता खोज सके और हम वैकल्पिक जीवन की खोज कर सकें | ये द्रविड़ जातियाँ हैं | वन्य संस्कृति पर आधारित है इनका जीवन ! इनको हम लोग अशिक्षित ,गरीब , अंधविश्वासी रूढिवादी कह देते हैं किन्तु वह वक्त आ गया है जब हमे रुक कर उनके जीवन को गहराई से देखना होगा | तब हमे यह पता चलेगा की निरंतर आगे बढ़ने की होड में रास्ता कहाँ पीछे छुट गया है | इसका विस्तार बहुत है मगर समझने के लिए हम उस संस्कृति के कुछ बिन्दुओ की पड़ताल करेंगे | उनकी संस्कृति में नारी की प्रधानता होती है | वे मानते हैं कि नारी और प्रकृति एक ही तत्त्व है ! जंगल और प्रकृति उनकी माँ है ! समुद्र देवी का रूप है , पहाड़ देवता के रूप और पिता है , हवा और बादल भी दिव्य हैं ! उनके लोक नृत्य प्रकृति और जीवन की एकता की अवधारणा पर ही आधारित हैं ! वे मानते हैं कि वृक्ष दिव्य शक्ति हैं | यहीं नहीं धरती , पर्वत , नदी , झरने , वृक्ष ,पशु तथा समूची प्रकृति दिव्यशक्तियों से परिपूर्ण है तथा उनको बेचना ईश्वर को बेचने जैसा है ! भूमि के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा है ! उनके सामूहिक अनुष्ठान होते हैं ! खेती का प्रत्येक कार्य जोतना-बोनाभी उनके लिए समारोह जैसा होता है ! जंगल उनके लिए किसी की भी निजी संपत्ति नहीं हो सकती और उसका विनाश उनके लिए मनुष्य के साथ अन्याय ही नहीं भगवान के अपराध जैसा है , इसलिए वे उस विकास की अवधारणा को स्वीकार नहीं कर पाते जिसे विज्ञान और बाजार ने रचा है | उनका जीवन आवश्यकता पर आधारित है , लालच या तृष्णा पर नहीं !वे मनी-माइंडेड नहीं हैं ! इसीलिए प्रतिदिन कमाई के लिए नहीं निकलते , वे तभी निकलते हैं , जब उनको आवश्यकता होती है ! प्रकृति का सहज साहचर्य , आनन्द और नृत्य उनका जीवन है ! उनके पास लिखित साहित्य नहीं है ! लेकिन वाचिक-परंपरा से उन्होंने सामाजिक विवेक की धरोहर को सँजो कर रक्खा है ! चेतना और आत्मा में वे भरोसा करते हैं ! रोग- मातृका की पूजा करते हैं ! मृत्यु के समय भी वे नृत्य करते हैं क्य़ोंकि यह भी भगवान की लीला है | यह सुखद है कि वे आज भी है और उनके जीवन के साक्ष्य बचे है और उनकी पड़ताल की जा सकती है | इनकी संस्कृति रक्ष संस्कृति थी | इनके विरुद्ध जिस संस्कृति का जन्म हुआ था वह यक्ष संस्कृति थी | कश्यप ब्रह्मा के पुत्र थे | शास्त्रों के अनुसार यक्ष और रक्ष दोनों कश्यप के पुत्र थे | पिता एक थे पर उनकी माताए अलग थी दिति और अदिति | कालिदास का मेघदूत कुबेर यक्ष के एक अनुचर का विरहगीत है ! अलकनन्दा से घिरी अलकापुरी कुबेर की राजधानी थी ! राक्षस यानि रक्ष भी यक्षों की ही शाखा थी ! याद रखने की बात है कि दीपावली को यक्षरात्रि कहा जाता था | यक्ष ऊपर रहते थे ,रक्ष नीचे | साधनो को लेकर उनके बीच कई बार देवासुर संग्राम हुआ | कई बार की जंग में रक्ष संस्कृति पराजित हुई और आज वह नष्ट होने के कागार पर है | आज आधुनिक सभ्यता के लिए आदिवासी समस्या है और आदिवासी के लिए सभ्यता और विकास समस्या है | हम उनको मनुष्य नहीं मानते , उनकी भाषा को भाषा नहीं मानते , उनकी कला को कला नहीं मानते | उनका शोषण करते हैं , उनके जंगल और प्राकृतिक-संसाधन छीनना विकास का सहज स्वभाव है ! विकास की इस अवधारणा का केन्द्रीय तत्त्व लालच है ! इसी के कारण आधुनिक-जीवन मृत्यु-पर्यन्त उसी हवस , उसी ईर्ष्या-द्वेष से जकड़ चुका है ! आधुनिक-जीवन प्रकृति के सहज साहचर्य , आनन्द और नृत्य से कितनी दूर आ चुका है ? प्राकृतिक-पर्यावरण को नष्ट करके हमने कोरोना जैसी विभीषिकाओं को आमन्त्रित किया है और यह तो महज शुरुआत है | 50 साल बाद यह दुनिया कैसी होगी कल्पना करने मे अब डर लगता है | जब भी हम किसी संकट की पड़ताल करते है तो हमारे पास दो मार्ग होते है | अगर हजारी प्रसाद द्विवेदी के पूर्व पक्ष के साथ चले तो ऐतिहासिक जड़े ओर नामवर सिंह के साथ चले तो एटिहासिक जड़ों के साथ सृजनात्मक कल्पना भी शामिल हो जाती है| इसके लिए सभ्यता के आरंभिक काल से अब तक के उत्कर्ष काल तक हमे नवजागरण यात्रा करनी होगी और समझना होगा कि यह संस्कृति किस तरह नष्ट हुई और किस तरह प्रकृतिक केन्द्रित जीवन को नई सभ्यता का आधार बनाया जा सकता है | जहां उदारवाद और समाजवाद की राह पर चलते हुए रास्ते बंद हो जाते है लेकिन यहाँ रास्ता दिखाई देता है | आदि काल , रीति काल ,वीर गाथा काल ,भक्ति काल ,छायावाद की तरह प्रगतिवाद और जनवाद का दौर समाप्त हो चुका है और एक नए दौर की शुरुवात हो गई है जिसे मैं अपनी सुविधा के लिए प्रकृति वाद कहता हूँ | समय नकारात्मकताओ का ही नहीं है | कई बदलाव हो रहे है | औरतों और दलितों मे हमने दर्ज किया है | इसके अलावे जैविक खेती , योग और दर्जनों क्रियाओ के समय बदल रहे है | प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते बदल रहे है | यह काम अब हम साहित्यकारों का है कि इसे समय की धारा के रूप मे रेखांकित करे | सांख्य दर्शन ने कभी प्रकृति और पुरुष के रिश्तों को सुलझा कर विचार के लिए एक आधार दिया था , बदले समय मे एक बार फिर हमे यह काम नए सिरे से करना होगा | उदारवाद और समाजवाद के बीच उजझे हुए संसार के लिए अगर कहीं रास्ता दिखता है तो वह प्रकृति की सत्ता को स्वीकार करते हुए मनुष्य बनने का रास्ता है |

– श्री निलय उपाध्याय

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  • यदि आप मेक्सिकन व्यंजनों के शौकीन हैं, तो cuajitos de Cadereyta को ज़रूर आज़माएँ। इस लेख में इसके बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी गई है।

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